Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 406
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 10000000046414060444444600110000000000000000000+1+0000 पचनान्दपश्चविंशतिका । दृष्टिको समस्तविकारोंकर रहित तथा शान्तखभावी आपको देखकर आनंद नहीं होता उसमनुष्यको अनंत कालतक इससंसारमें परिभ्रमण करना पड़ता ॥ ८॥ दिहे तुमम्मि जिणवर जम्मह कजंतराडलं हिययं कइयावि होई पुब्बाजियस्स कम्मरस सो दोसो ॥ रष्टे त्वयि जिनवर यन्मम कार्यान्तराकुलं वयं कदापि भवति पूर्वार्जितस्य कर्मणः स दोषः ।। अर्थ-हे प्रभो हे जिनेन्द्र आपको देखकर भी जो कभी २ मेरा मन दूसरे २ कार्योंसे आकुलित हो जाता है उसमें मेरे पूर्वोपजित कर्मका ही दोष है ॥ भावार्थ:-हे प्रभो संसारमें आपके दर्शन अलभ्य है अर्थात् हरएक मनुष्यको आपके दर्शन नहीं मिल सक्त इसलिये यद्यपि आपका दर्शन मनकी एकाग्रता से ही करना चाहिये तो भी हे प्रभो मैंने जो पूर्वभवोंमें अशुभकर्मीका उपार्जन किया है उन अशुभकर्मोंने मेरे ऊपर इतना अपना प्रभाव जमारक्खा है कि आपके दर्शनके होनेपर भी मेरा मन दुसरे २ कार्योसे व्याकुलित होजाता है इसलिये दूसरे २ कार्यों में जो मेरा मन आसक्त होता है उसमें पूर्वोपार्जित कर्मों का ही दोष है मेरा कोई दोष नहीं है ॥ ९ ॥ दिखे तुमम्मि जिणवर अछओ जम्मतरं ममेहावि सहसा सुहेहि घडियं दुक्खेहि पलाइयं दूरं ॥ रष्टे लाये जिनवर आस्तां जन्मांतरं ममेदापि सहसा सुघटितं दुःसैश्च पळायितं दूरम् ।। स.पुस्तकमें गवनम्माविमो पर भी पाठहै। 9+000000000000000000........0000000000000000000000+0. ३९३॥ For Private And Personal

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