Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

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Page 409
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥३९६ ।। www.kobatirth.org पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-- हे प्रभो हे जिनेन्द्र सिद्धांतरूपी अमृतके गंभीरसमुद्र, आपके देखनेपर ऐसा कौनसा ज्ञानी होगा जो रागादिदोषोंसे जिनकी आत्मा मलिन हो रही है ऐसे देवोंको मानेगा ? | Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir भावार्थ:: -- जबतक मनुष्य ज्ञानी नहीं होता अर्थात् कौनसा पदार्थ मुझे हितका करनेवाला है और कौनसा पदार्थ मुझे अहितका करनेवाला है ऐसा मनुष्यको ज्ञान नहीं होता तबतक वह जहां तहां रागी तथा द्वेषी भी देवोंको उत्तमदेव समझता है किंतु जिससमय उसको हिताहितका ज्ञान होजाता है उससमय वह रागी तथा द्वेषी देवोंको न अपना हितकारी मानता है तथा उनके पास भी नहीं झांकता है इसलिये हे प्रभो जिसने सिद्धांतरूपी अमृतके समुद्र आपको देखलिया है वह ज्ञानवान् प्राणि कभी भी रागी तथा द्वेषी देवों को नहीं मानसकता है ॥ १४ ॥ दिहे तुमम्मि जिणवर मोक्खा अदुलदोषि संपई मिच्छत्तमलकलंकी मणो ण जइ होइ पुरिसस्स ॥ दृष्टे लाये जिनवर मोक्षोऽतिदुर्लभः संप्रतिपद्यते मिथ्यात्वमलकलंकितमनो न यदि भवति पुरुषस्य | अर्थः- हे प्रभो जिनेश यदि मनुष्यका मन मिध्यात्वरूपी कलंकसे कलंकित नहीं हुआ हो तो वह पुरुष आपके दर्शनसे अत्यंत दुर्लभ भी मोक्षको भलीभांति प्राप्त कर लेता है । भावार्थ:- यदि मनुष्यका चित्त मिध्यात्वरूपी मलसे ग्रस्त हो जावे तो उस मनुष्यको तो मोक्षकी प्राप्ति हो ही नहीं सकती क्योंकि जिसप्रकार पित्तज्वरवालेको मीठा भी दूध जहर के समान कडुआ लगता है उसी प्रकार उस मिथ्यादृष्टिको आपका उपदेश तथा आपका दर्शन विपरीत ही मालूम पड़ता है और जब वह For Private And Personal ।।३९६ ।।

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