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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । दृष्टे स्वाथि जिनवर विशवल्य: फलंति सर्वा:
इधमफुल्लितापि खलु वर्षति शून्योऽपि रजैः । अर्थ:-हे प्रभो जिनेश्वर आपके दर्शनसे विना पुष्पितभी समस्त दशदिशारूपी लता इष्टपदार्थों को देती है तथा रत्नोंकर रहितभी आकाश रत्नोंकी वृष्टि करता है।
भावार्थ:--यद्यपि नियम यह है कि लता पुष्पित होकर फलको देती है किंतु हे प्रभो आपके दर्शनों में इतनी शक्ति है कि नहीं पुष्पित होकर भी मनुष्योंको दिशारूपीलता इष्टफलको देती हैं तथा रत्नोकर रहित भी आकाश आपके दर्शनोंकी कृपासे रनोंकी वृष्टिको करता है ॥ २४ ॥
दिखे तुमम्मि जिणवर भव्वो भयवजिओ हवे णवरं गणर्णिदचिय जायइ जोण्हापसरे सरे कुमुअं॥
दृष्टे स्वयि जिनवर भव्यो भयवर्जितो भवेन्नवरिम्
गतनिद्र एव जायते क्योत्स्नाप्रसरे सरसि कुमुदम् ।। अर्थ:-जिसप्रकार चांदनीके फैलनेपर सरोवरमें रात्रिविकाशी कमल शीघ्र ही प्रफुल्लित होजाते हैं उसीप्रकार हेजिनेश आपके केवल दर्शनसे ही भव्यजीव समस्तकारके भयोंकर रहित तथा मोहरूपी निद्रासे रहित मुखी होजाते हैं।
भावार्थ:-जिसप्रकार रात्रिविकाशी कमलोंके संकोचरहितपनेमें तथा प्रफुल्लतामें चंद्रमाकी चांदनी असाधारण कारण है उसीप्रकार हे प्रभो भव्यजीवोंके मोहनिद्राके रहितपनेमें तथा समस्तप्रकारके भोंको दूरकरनेमें आप ही असाधारण कारण हैं और दूसरा कोई नहीं ॥ २५ ॥
दिढे तुमम्मि जिणवर हिययण महा सुहं समुल्लसियं सरिणाहणिव सहसा उग्गमिए पुण्णिमा इंदे ॥
॥४०२॥
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