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पद्मन न्दिपञ्चविंशतिका ।
दृष्टे लाये जिनवर सुकृतार्थो मानितो न येनात्मा स व मज्जनोन्मज्जितानि भवसागरे करिष्यति ॥
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अर्थः- हे प्रभो हे जिनेन्द्र जिस मनुष्यने आपको देखकर भी अपनी आत्माको कृतकृत्य नहीं माना वह मनुष्य नियमसे संसाररूपी समुद्र में मज्जन तथा उन्मज्जनको करैगा अर्थात् जिसप्रकार मनुष्य समुद्र में उछलता तथा डूबता है उसीप्रकार वह मनुष्य बहुतकालतक संसारमें जन्म मरण करता हुआ भ्रमण करैगा ॥ १७ ॥ दि तुमम्मि जिणवर णिच्छयदिठ्ठीय होइ जं किंपि ण गिराइगोयरं तं सानुभवत्यपि किं भणिमो ॥
दृष्टे लाये जिनपर निश्वयट्या भवति यत्किमपि
न गिरां गोचरं तत् स्वानुभवस्थमपि किं भणामः ॥
अर्थः- हे प्रभो हे जिनेश वास्तविक दृष्टिसे आपके देखनेपर जो कुछ हमको (आनंद) होता है वह यद्यपि हमारे मनमें स्थित है तो भी वह वचनके अगोचर ही है इसलिये हम उसके विषयमें क्या कहें ? |
भावार्थ:- हे प्रभो जिससमय मैं आपको निश्चयदृष्टिसे देखलेता हूं उससमय मुझे इतना आनंद होता है कि मैं यद्यपि अपने आप उसको जानता हूं तो भी उसको वचनसे नहीं कह सकता ॥ १८ ॥ दिडे तुमम्मि जिणवर दव्वावहिविसेसरूवम्मि दंसणसुद्धायगयं दाणिं मम णत्थि सव्वत्थ ॥
दृष्टे त्वयि जिनवर दृष्टव्यावधिविशेषरूपे दर्शनशुद्धया गतमिदानी मम नास्ति सर्वार्थः ॥
अथः - हे प्रभो जिनेन्द्र देखनेयोग्य पदार्थों की सीमाके विशेषस्वरूप अर्थात् केवलज्ञानस्वरूप आपके
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