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पभनन्दिपश्चविंशतिका । दिहे तुमम्मि जिणवर संतोषो मज्झ तह परो जाओ इंदविहवोपि जणइ ण तण्हालेसंपि जह हियए ॥
दृष्टे त्वयि जिनवर संतोषो मम तथा परोजातः
इन्द्रविभवोऽपि जनयति न तृष्णालेशमपि यथा हवये ॥ अर्थः-हे स्वामिन् हेजिनेन्द्र आपके देखनेसे मुझे ऐसा उत्तम संतोष हुवा है कि जिससंतोषके सामने इन्द्रका ऐश्वर्यभी मेरे हृदयमें तृष्णाके लेशकोभी उत्पन्न नहीं करता ॥
भावार्थ:-संसारमें यद्यपि इन्द्रके ऐश्वर्यका पानाभी बड़े भारी पुण्यका फल है तो भी हेजिनेन्द्र आपके दर्शन से ही मुझे इतना उत्कृष्ट तथा बड़ा भारी संतोष होता है कि मुझे इन्द्रके ऐश्वर्यके पानेकी तृष्णाही नहीं होती अर्थात् मैं आपके दर्शनसे उत्पन्न हुवे संतोषके सामने इन्द्रके ऐश्वर्यको भी सड़े तृणके समान असार मानता हूं॥७॥
दिखे तुमम्मि जिणवर वियारपडिवजिए परमसंते जस्स ण हिट्ठी दिट्टी तस्स ण णियजम्मविच्छेओ ॥
दष्टे स्वयि जिनवर विकारपरिवाते परमशान्ते
यस्य न हृष्टा रष्टिः तस्य न निजजन्मविच्छेदः ॥ अर्थः-समस्तप्रकारके विकारोंकर रहित तथा परमशांत ऐसे आपको देखकर हे जिनेन्द्र जिसमनुष्यकी दृष्टिको आनंद नहीं होता उस मनुष्यके स्वीयजन्मोंका नाशभी नहीं होता ॥
भावार्थ:-हे भगवन् हे जिनेश जो मनुष्य समस्त प्रकारके विकारोंकर रहित तथा परमशांत ऐसी आप की मुद्राको देखकर आनंदित होता है उसको संसारमें जन्म नहीं धारण करने पड़ते किंतु जिसमनुष्यकी
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