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॥३८६॥
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पअनन्दिपश्चविंशतिका । आकाश अनंतप्रदेशी है परंतु हे भगवन् यह एक आपकी अपूर्व महिमा है कि अनंतत्रदेशी भी यह आकाश आपके ज्ञानमें परमाणु के समान ही है अर्थात आपका ज्ञान आकाशसे भी हे प्रभो अनंतगुणा है किंतु हे भगवन् आपसे भिन्न जितनेभर देव है उनमें यह महिमा नहीं मौजूद है क्योंकि जब उनके केवलज्ञान ही नहीं है तो वह अनंतगुण हो किसप्रकार सकता है ॥ ५७ ॥
भुवणत्थुय थुणइ जइ जए सरस्सइ संतयं तुहं तहवि ण गुणतं लहइ तहिं को तरह जडो जणो अपणो ॥
भुवनस्तुत्य तीति यदि जगति सरस्वती संततं त्वां तथापि
न गुणांतं लभत ताई कस्तरति जडो जनोऽन्यः ॥ अर्थ-हे तीनभुवनके स्तुतिकेपात्र संसारमें सरस्वती आपकी स्तुति करती है यदि वह भी आपके | गुणोंके अंतको नहीं प्राप्त करसकती है तब अन्य जो मूर्ख पुरुष है वह यदि आपके गुणोंकी स्तुति करै तो । वह कैसे आपके गुणोंका अंत पा सकता है ?
भावार्थ:--सरस्वतीके सामने पदार्थके वर्णन करने में दूसरा कोई भी प्रवीण नहीं है क्योंकि वह साक्षात् सरस्वती ही है परंतु हे प्रभो जब वह भी आपके गुणों के अंतको नहीं प्राप्त करसकती है अर्थात आपके गुणों के
वर्णन करने में जब वह भी हार मानती है तब हे जिनेश जो मनुष्य मूर्ख हैं अर्थात् जिसकी बुद्धिपर ज्ञानाail वरणकर्मका पूरा २ प्रभाव पड़ाहुआ है वह मनुष्य कैसे आपके गुणों को वर्णन करसकता है ?
सारार्थ:--हे जिनेन्द्र आपमें इतने अधिक गुण विद्यमान हैं तथा वे इतने गंभीर हैं कि उनको कोई भी वर्णन नहीं करसकता ॥ ५८ ॥
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