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॥३८॥
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पअनान्दपञ्चविंशतिका । कृच्छात्ममुपलब्धे कृतकृत्या यस्मिन् योगिनो भवति
सरपरमपदकारणं जिन न स्वत्तः परोऽस्ति । अर्थः हे प्रभोहे जिनेन्द्र वड़े कष्टोंसे आपको प्राप्तहोकर योगीलोग कृतकृत्य होजाते हैं अर्थात् संसारमें उन ३ को दूसरा कोई भी काम नहीं बाकी रहता इसलिये आपसे भिन्न कोई भी परमपद (मोक्षपद) का कारण दूसरा नहीं है ।
भावार्थ:-यद्यपि संसारमें बहुतसे देव हैं तथा वे अपनेको परमपदका कारण भी कहते हैं किंतु हे जिनेन्द्र उनमें अनेक दृषण मौजूद हैं इसलिये वे परमपदके कारण नहीं हो सकते किंतु यदि परमपदके कारण हो तो आपही हो क्योंकि योगी तपआदिको करके आपके स्वरूपको प्राप्त होकर कृतकृत्य हो जाते हैं।॥५४॥
सुहमोसि तह ण दीससि जह पहु परमाणुपेत्थियेहिंपि गुरवो तह वोहमए जह तइ सत्वंपि सम्मायं ॥
सूक्ष्मोऽसि तथा न दृश्यसे परमाणुप्रेक्षिभिरपि ।
गरिष्टस्तथा बोधमये यथा त्वयि सर्वमपि सम्मातम् ॥ अर्थः--हे प्रभो हे जिनेश आप सूक्ष्म तो इतने हैं कि परमाणुपर्यंत पदार्थों को प्रत्यक्ष करनेवाले भी आपको देख नहीं सकते तथा गुरु आप इतने हैं कि सम्यग्ज्ञानस्वरूप आपमें यह समस्त पदार्थसमूह समाया हुआ है अर्थात् आपका ज्ञान आकाशसे भी अनंतगुणा है इसलिये अकाशादि समस्त पदार्थ आपके ज्ञानमें झलक रहे हैं॥५५।।
णिस्सेसवत्थुसत्थे हेयमहेयं निरूवमाणस्स तं परमप्पासारा ससमसार पलाल वा
निश्शेषवस्तुसा हेयमहेयं विरूष्यमाणस्व त्वं परमात्मा सारः शेषमसारं पळालं वा॥
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॥३८४॥
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