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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः हे प्रभो हे जिनेन्द्र समस्तवस्तुओंके समूहमें जो मनुष्य हेय तथा उपादेयको देखनेवाला है उस पुरुषकी दृष्टिमें परमात्मा आप ही सार हैं और आपसे भिन्न जितनेभर पदार्थ हैं वे समस्त सूखेतृणके समान असार हैं।
भावार्थः-यद्यपि संसारमें अनेक पदार्थ हैं किंतु हे प्रभो जो मनुष्य हेय तथा उपादेयका ज्ञाता है अर्थात् यह वस्तु त्यागने योग्य है तथा यह वस्तु ग्रहणकरने योग्य है जिसको इसवातका भलीभांति ज्ञान है उस मनुष्यकी दृष्टिमें यदि सारभूत पदार्थ हो तो आप ही हो क्योंकि आप समस्त कौकर रहित परमात्मा हो परंतु आपसे भिन्न कोई भी पदार्थ सार नहीं किंतु जिसप्रकार सूखा तृण असार है उसीप्रकार आपसे भिन्न समस्त पदार्थ असार हैं ।। ५६ ॥
घरइ परमाणुलीलं जं गब्भे तिहुयणंपि तंपि णह अंतो णाणस्स तुह इयरस्स न परिसी महिमा ।
धरति परमाणुलीलां यद्गमें त्रिभुवनमपि तदपि नभः
अतो शानस्य तव इतरस्य नईशी महिमा हे प्रभो हे जिनेश जिस आकाशके गर्भमें ये तीनोंभुवन परमाणु की लीलाको धारण करते हैं अर्थात् परमाणुके समान मालूम पड़ते हैं वह आकाश भी आपके ज्ञानके मध्यमें परमाणु के समान मालुम पडता है ऐसी महिमा आपके ज्ञानमें ही मौजूद है किंतु आपसे भिन्न और किसी भी देवके ज्ञानमें ऐसी महिमा नहीं है।
भावार्थ:-जैनसिद्धांतमें आकाश अनंतप्रदेशी माना गया है और उस आकाशके दो भेद स्वीकार किये हैं एक लोकाकाश दूसरा अलोकाकाश उनम जिसमें जीवादि द्रव्य रहें उसको लोक कहते हैं वह लोक इस आकाशके मध्यमें सर्वथा छोटा परमाणुके समान मालूम पड़ता है क्योंकि लोक असंख्यात प्रदेशी ही हैं तथा
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