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पचनन्दिपश्चविंशतिका । | संसारमें ही रुलना पड़ेगा ॥ ४५ ॥
चित्स्वरूपगगने जयत्यसावेकदेशविषमापि रम्यता ।
ईषदद्रतवच-करैः परैः पद्मनन्दिवदनेन्दुना कृता ॥४७॥ अर्थः--पद्मनन्दिमुनिका जो मुख वही हुआ चंद्रमा उससे कुछ उदयको प्राप्त ऐसी जो वचनरूपी उत्कृष्ट किरण उनसे की गई, और स्वसंवेदन प्रत्यक्षके गोचर ऐसी यह रम्यता चैतन्यवरूपी आकाशमें चिरकालतक जयवंत प्रवर्ती ॥
भावार्थ:-जिसप्रकार चंद्रमाकी किरोसे की हुई रम्यता आकाशमें रहती है उसीप्रकार पद्मनन्दि आचार्यके मुखसे निकले हुवे वचनोंसे की हुई यह रम्यता भी सदा सबजगहपर चिरकालतक जयवंत प्रवर्ती। अब आचार्य इसबातको दिखाते हैं कि यदि मोहवैरी विनकरनेवाला संसारमें न होता
तो मोक्षकी प्राप्ति अत्यंत सुलभ हो जाती।
शार्दूलविक्रीड़िता त्यक्ताशेषपरिग्रहः शमधनो गुप्तित्रयालंकृतः शुद्धात्मानमुपाश्रितो भवति यो योगी निराशस्ततः। मोक्षो हस्तगतोऽस्य निर्मलमतेरेतावतैव ध्रुवं प्रत्यूहं कुरुते स्वभावविषमो मोहो न वैरी यदि ॥४८॥
अर्थः-जिसने बाह्य तथा अभ्यंतरके भेदसे समस्त परिग्रहोंका नाश करदिया है और जिसके शान्तिही धन है तथा मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्ति इनतीन प्रकारकी गुप्तियोंसे जो शोभित है और जिसको शुद्धात्माकी प्राप्ति होगई है और जो निराश है अर्थात् जिसकी किसीभी पदार्थमें अंशमात्रभी इच्छा नहीं रही है ऐसा योगी हता है इसीलिये निर्मल है बुद्धि जिसकी ऐसे उसयोगीके यदि स्वभावसे ही कुटिल मोहरूपी
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