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॥३५६॥
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पअनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-हे जिनेंद्र हे प्रभो मेरुपर्वतके मस्तकपर आपके स्नानके होनेपर पतनसे उछलताहुआ जोजल उसके ताड़नसे अत्यंतनष्ट जोदेव उनदेवोंकी ऐसी दशा होतीहुई मानो चारोओरसे आकाश ही व्याप्त हो गया हो॥११॥
णाह तुह जम्म हरिणो मेरुस्सि पणचमाणस्स । वेलिरभुवाहिभग्गा तह अजवि भगुरा मेहा ॥
नाथ तव जन्मखाने हरे मेरी प्रनृत्यमानस्य
प्रलंचभुजाभ्यां भन्नाः तथा अद्यापि भंगुरा मेघाः । अर्थः--हे प्रभो आपके जन्मस्तानकेसमय जिससमय अपनी लंबी भुजाओंको फैलाकर इंद्रने नृत्य किया था उनलंची भुजाओंसे जो मेघ भमहुए थे वे मेघ इससमय भी क्षणभंगुर ही हैं।
भावार्थ:--ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि जो मेघ क्षणभंगुर मालूम पड़ते हैं उनकी क्षणभंगुरताका यही कारण है कि जिससमय भगवानका जन्मस्नान मेरुपर्वतके ऊपर हुआ था उससमय उसमेरुपर्वतके ऊपर आनंदमें आकर अपनी भुजाओंको फैलाकर इंद्रने भगवानके सामने नृत्य किया था और उससमय फैलीहुईमुजाओंसे मेघ भमहुए थे इसीकारण अब भी मेघोंमें भंगुरता है किंतु भंगुरताका दूसरा कोई भी कारण नहीं है॥१२॥
जाण वहुएहि वित्ती जाया कप्पदुमेहि तेहि विणा । एकेणवि ताण तए पयाण परिकप्पिया णाह ॥
यासां बहुभित्तिर्जाता कल्पदुमैः, तैर्विना
एकेनापि तासां त्वया प्रजानां परिकल्पिता नाथ । अथः-हे नाथ हे प्रभो जिनप्रजाओंकी आजीविका बहुतसे कल्पवृक्षोंसे होती हुई उन कल्पवृक्षोंके अभावमें उन प्रजाओंकी आजीविका आप अकेलेने ही की।
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