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पद्यनन्दिपञ्चविंशतिका । कणयकमलाणमुवरि सेवातुहविवुहकप्पियाण तुह अहियसिरीणं तत्तो जुत्तं चरणाणसंचरणं ॥?
कनककमलानामुपरि सेवातुरविबुधकस्पितानां तव
अधिकत्रीणां ततो युक्तं चरणानां संचरणम् ॥ अर्थः--हे जिनेन्द्र हे प्रभो आपके चरण अत्यंत उत्तम शोभाकर संयुक्त हैं इसलिये उनका, भक्तिवश देवोद्वारा रचित जो सुवर्णकमल उनके ऊपर गमन करना युक्त ही है।
भावार्थ:-जिससमय भगवान ज्ञानावरणादि चारघातिया कर्मोको सर्वथा नष्ट कर देते हैं उससमय उनको केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है और केवलज्ञानकी प्राप्ति होनेके पीछे वे उपदेश देनेको निकलते हैं उस समय यद्यपि वे आकाशमें अधर चलते हैं तोभी देव भक्तिके वशहोकर उनके चलनेकेलिये सुवर्णकमलोंसे निमित मार्गकी रचना करते हैं उसी आशयको भनमें रखकर ग्रंथकार भगवानकी स्तुति करते हैं कि हे भगवन् आपने जो देवरचित सुवर्णकमलों पर गमन किया था वह सर्वथा युक्त ही था क्योंकि जैसे सुवर्णकमल एक उत्तम पदार्थ थे उसीप्रकार आपके चरण भी अति उत्तम शोभाकर संयुक्त थे ॥४४॥
सइहरिकयकण्णसुहो गिजइ अमरेहि तुह जसो सग्गो मण्णे तं सोउमणो हरिणो हरिणकसल्लीणे ॥
शचीन्द्रकृतकर्णसुखं गीयते अमरैस्तव यशः खगे
मन्ये तच्छोतुमनाः हरिण: इरिणांकसलीनः ।। अर्थ:-हे भगवन् हे जिनेन्द्र जिसके सुननेसे इंद्र तथा इंद्राणीके कानोंको सुख होता है ऐसे आपके यशको
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