________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
1000
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
पमनान्दपञ्चविंशतिका । तो समस्तजगतको संहार करनेवाली ऐसी जो मरणरूपी वनकी अग्नि उससे कैसे उद्धार होता ?
भावार्थ:-यदि किसीकारणसे वनमें अग्नि लगजावे और उस अग्नि का बुझानेवाला यदि नदीका जल न होवे तो उस अग्निसे जिसप्रकार कुछ भी चीज नहीं वचती सब ही भस्म हो जाती हैं उसीप्रकार हे जिनेन्द्र यदि आपके चरणोंकी स्तुतिरूप जो नदी उससे बुझाना न होता तो समस्त जगतको नष्ट करनेवाली मरणरूपी वनामिसे किसीप्रकारसे उद्धार नहीं हो सकता था। सारार्थ:-हे जिनेन्द्र यदि जीवोंको मरनेसे बचाने वाली है तो आपकी चरणों की स्तुति ही है ॥४८॥
करजुयलकमलमउले भालत्थे तुह पुरो करा वसई सग्गापवग्गकमला थुणति तं तेण सप्पुरिसा ॥
करयुगल कमलमुकुले भालस्थे तव पुरतः फते वसति
स्वर्गापवर्गकमला कुर्वति तत् तेन सत्पुरुषाः ॥ अर्थः-हे भगवन् हे जिनेन्द्र जिससमय भव्यजीव आपके सामने दोनों हाथरूपी कमलों को मुकुलितकर अर्थात् जोड़कर मस्तकपर रखते हैं उससमय उनको स्वर्ग तथा मोक्षकी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है इसी लिये उत्तम पुरुष हाथ जोड़कर मस्तकपर रखते हैं ।
भावार्थ:--ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे भगवन् जो सज्जनपुरुष हाथ जोड़कर मस्तकपर रखते हैं उनका उसप्रकारका कार्य निष्फल नहीं है किंतु उनको, हाथ जोड़कर मस्तकपर रखनेसे स्वर्ग तथा मोक्ष लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है अर्थात् हे भगवन् जो भव्यजीव आपको हाथ जोड़कर तथा मस्तक नवाकर नमस्कार करते हैं उनको स्वर्ग तथा मोक्षके सुखोंकी प्राप्ति होती है॥ ४९ ॥
80606००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
HE८०॥
For Private And Personal