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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-हे जिनेश हे प्रभो सूर्यका प्रभासमूह तो मनुष्योंको संतापका करनेवाला है तथा चंद्रमाका प्रभासमूह जड़ताका करनेवाला है किंतु हे पूज्यवर आपका प्रभासमूह तो संताप जड़ता दोनोंको नाश करनेवाला है।
भावार्थ:--ययपि संसारमें बहुतसे तेजस्वी पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु हे पूज्यवर प्रभो आपके समान कोई भी तेजस्वी पदार्थ उत्तम नहीं क्योंकि हम यदि सूर्यको उत्तम तेजस्वी पदार्थ कहैं सो हम कह नहीं सकते क्योंकि उसका जो प्रभाका समूह है वह मनुष्योंको अत्यंत संतापका करनेवाला है और यदि चंद्रमाको हम उत्तम तथा तेजस्वी पदार्थ कहैं तो यह भी बात नहीं बन सकती क्योंकि चंद्रमाकी प्रभाका समूह, जड़ताका करनेवाला है किन्तु हे जनवर आपकी प्रभाका समूह संताप तथा जड़ता दोनोंका सर्वथा नाश करनेवाला है इसलिये आपकी प्रभाका समूह ही उत्तम तथा सुखदायक है ॥ २९ ॥
मंदरमहिजमाणांवुरासिणियोससण्णिहा तुज्झ वाणीसुहा ण अण्णा संसाराविसस्सणासयरी॥
मंदरमध्यमानाम्बुराशिनिर्घोषसनिभा तव ।
वाणी शुभा संसारविषस्य नाशकरी ॥ अर्थः-हे भगवन् हे जिनेश मंदराचलसे मथन किया गया जो समुद्र उसका जो निर्घोषि (बड़ाभारी शब्द) उसके समान जो आपकी वाणी है वह शुभ है कितुं अन्यवाणी शुभ नहीं । तथा आप की वाणीही संसाररूपी विषको नाशकरने वाली है किंतु और दूसरी वाणी संसाररूपी विषको नाशकरने वाली नहीं है।
भावार्थ:-हेभगवन् यद्यपि संसारमें बहुतसे बुद्ध प्रभृति देव मौजूद हैं और वाणी उनकीभी मौजूद है किंतु हे प्रभो जैसी आपकी वाणी (दिव्य ध्वनि) शुभ तथा उत्तम है वैसी बुद्ध आदिकी वाणी नहीं
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