________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
॥७२॥
܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
पचनान्दपश्चविंशतिका । मन्यस्य जगति जिहा कस्य सज्ञानस्य वर्णने तव
यत्र जिन तेऽपि जाताः सुरगुरुप्रमुखाः कवयः कुंठाः ॥ अर्थ:-हे जिनेश हे प्रभो ऐसा संसारमें कौनसा पुरुष समर्थ है कि जिसकी जिंहा उत्तमज्ञानके धारक आपके वर्णन करने में समर्थ हो? क्योंकि वृहस्पति आदिक जो उत्तम कवि हैं वे भी आपके वर्णन करनेमें मंदबुद्धि हैं।
भावार्थ:-संसारमें वृहस्पतिके बराबर पदार्थों के वर्णन करने में दूसरा कोई उत्तम कवि नहीं है क्योंकि वेइंद्रके भी गुरु हैं किंतु हे जिनेंद्र आपके गुणानुवाद करनेमें वे भी असमर्थ हैं अर्थात् उनकी बुद्धिमें भी यह सामर्थ्य नहीं जो आपका गुणानुवाद वे करसके क्योंकि आपके गुण संख्यातीत तथा अगाह है। और जब वृस्पतिकी जिहा भी आपके गुणानुवाद करने में हार मानती है तब अन्य साधारणमनुष्योंकी जिहा आपका गुणानुवाद करसके यह बात सर्वथा असंभव है ॥ ३६ ॥
सो मोहत्थेण रहिओ पयासिओ पहु सुपहो तएवईया तेणाजवि रयणजुआ णिविघं जति णिबाणं ॥
स मोहचौररहितः प्रकाशितः प्रभो सुपंथा तस्मिन्काले
तेनाद्यापि रत्नत्रययुता निर्विघ्नं यांति निर्वाणम् ॥ अर्थः हे प्रभुओंकेप्रभु जिनेंद्र आपने उससमय मोहरूपी चोरकररहित उत्तममार्गका प्रकाशन किया था इसलिये सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रके धारी भव्यजीव इससमय भी उसमार्गसे बिना ही क्लेशके मोक्षको चलेजाते हैं।
14640000000000000000000000000000000000000000000000000001
܀܀܀܀܀܀܀܀
॥३७२।।
For Private And Personal