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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । भावार्थ:-जितनेभर पदार्थ हैं वे समस्तपदार्थ अनेकधर्मस्वरूप हैं जब और जिसवाणीसे उन पदार्थोंके अनेकधाँका वर्णन कियाजायगा तभी उन पदार्थोंका वास्तविकस्वरूप समझाजायगा किंतु दो एक धर्मके कथन से उन पदार्थोंका वास्तविक स्वरूप नहीं समझा जा सकता और हे भगवन् आपसे अतिरिक्त जितनेभर देवह उन सबकी वाणी एकांतमार्गको ही सिद्ध करती है इसलिये उनकी वाणी वस्तुके वास्तविक स्वरूपको नहीं कह सकती किंतु आपकी वाणी ही अनेकांतमार्गको सिद्ध करनेवाली है इसलिये वही पदार्थों के वास्तविक खरूपका वर्णनकर सकती है तथा आपके सर्वज्ञपनेसे भी समस्तमनुष्यों के हृदयको प्रकाश होता है अर्थात् जिससमय आप उनको यथार्थ उपदेश देते हैं उससमय उनके हृदय में भी वास्तविक पदार्थों का ज्ञान हो जाता है ॥३३॥
विप्पडिवजह जो तुह गिराए महसुइवलेण केवलिणो वरदिहिदिठ्ठणहजतपक्खगणणेवि सो अंधो ॥
विप्रतिपयले यस्तव गिरि मतिश्रुतिवलेन केवलिनः
परराष्टिष्टनभायातपक्षिगणनेवि सोन्धः । अर्थः-हे भगवन् जो मनुष्य मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानकेही बलसे आप केवलीके वचनमें विवाद करता है वह मनुष्य उसप्रकारका काम करता है कि अच्छी दृष्टिवाले मनुष्य द्वारा देखेहुए जो अकाशमें बातेहुए पक्षी उनकी गणनामें जिसप्रकार अंधा संशय करता है।
भावार्थ:-जिसकी दृष्टि तीषण है ऐसा कोई मनुष्य यदि आकाशमें उड़ते हर पक्षियोंकी गणना करे और उससमय कोई पासमें बैठा हुआ अंधापुरुष उससे पक्षियोंकी गणनामें विवाद करै तो जैसा उससूझते पुरुषके सामने उस अंधेका विवाद करना निष्फल है उसीप्रकार हे प्रभो हे जिनेश यदि कोई केवल मविज्ञान
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म३.
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