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॥३६८॥
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पचनन्दिपश्चविंशतिका । क्योंकि आपकी वाणी अनेकांतवरुप पदार्थका वर्णन करनेवालीहै और उनकी वाणी एकांतखरुप पदार्थका वर्णन करने वाली है तथा वस्तु अनेकांतात्मकही है एकान्तात्मक नहीं। और आपकी वाणी समस्तसंसाररूपी विषको नाशकरने वाली है किन्तु बुद्ध आदिकी वाणी संसाररूपी विषको नाशकरने वाली नहीं संसाररूपी विषको उत्कटकरने वालीही है तथा आपकी वाणी मंदराचलसे जिससमय समुद्रको मथन हुवाथा और जैसा उस समयमें शब्द हुवा था उसी शब्दके समान उन्नत तथा गंभीर है ॥ ३० ॥
पत्ताण सारणिंपिव तुज्झगिरं सा गई जाणंपि जा-मोक्खतरुटाणे असरिसफलकारणं होई॥
प्राप्तानां सारिणीभिव सव गिरं सा गति: जड़ानामपि
या मोक्षतस्थाने असहशफलकारणं भवति अर्थः-हेप्रभो हेजिनेश जो अज्ञानीजीव आपकी वाणीको प्राप्तकर लेते हैं उन अज्ञानीभी जीवोंकी वह गति होती है जोगति मोक्षरूपी वृक्षके स्थानमें अत्युत्तम फलकी कारण होती है।
भावार्थ:-जोजीव ज्ञानी है वे आपकी वाणीको पाकर मोक्षस्थानमें जाकर उत्तम फलको प्राप्त होते हैं इस में तो किसीप्रकारका आश्चर्य नहीं किंतु हे भगवन् अज्ञानीभी पुरुष आपकी वाणीका आश्रयकर मोक्ष स्थानमें उत्तम फलको प्राप्त करते हैं और जिसप्रकार नदी वृक्षके पासमें जाकर उत्तम फलोंकी उत्पत्ति कारण होती है उसीप्रकार आपकी वाणीभी उत्तम फलोंकी उत्पत्तिमें कारण है इसलिये आपकी वाणी उत्तम नदीके समान है॥३१॥
पोयंपिव तुह पवयणम्मि सल्लीणफडमहो कयजड़ोहं । हेलाणच्चिय जीवा तरंति भवसायरमणंतं ।।
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