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॥३५४
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पअनन्दिपश्चविंशतिका । शचीसुरनमितपदा मरुदेवी प्रभो स्थितोऽसि यद्गगमें
पुरत:पही बध्यते मध्ये तस्याः पुत्रवतीनाम् । अर्थः-हे प्रभो हे जिनेंद्र आप मरुदेवीमाताके गर्भमें स्थित होतेहुए इसीलिये मरुदेवीमाता इन्द्राणी तथा देवोंसे नमस्कार कियेगये हैं चरणजिसके ऐसी होतीहुई और जितनीभर पुत्रवती स्त्रियां थीं उनसबमें मरुदेवीका ही पद सबसे प्रथम रहा।
भावार्थ:-संसारमें बहुतसी स्त्रियां पुत्रोंको पैदाकरनेवाली हैं, उनमें मरुदेवीके ही चरणोंको क्यों इन्द्राणी तथा देवोंने नमस्कारकिया ? और उनके चरणोंकी ही क्यों सेवा की? इसका कारण केवल यही है कि हे प्रभो मरुदेवीमाताके गर्भमें आप आकर विराजमान हुए थे इसलिये उनकी इतनी प्रतिष्ठाहुई और वे जितनीभर पुत्रोंको पैदाकरनेवाली स्त्रियां थीं और हैं, उनमें सबमें उत्तम समझी गई और कोई कारण नहीं ॥८॥
अंकत्थे तइ दिठे जं तेण सुरालयं सुरिंदेण अणिमसत्तवहुत्तं सहल णयणाणपडिवहूं ।।
अंकस्थे त्वयि दृष्छे गच्छता सुराळयं सुरेन्द्रेण
अनिमेषत्ववहुस्वं सफलं नयनानां प्रतिपन्नम् । अर्थः-हे जिनेन्द्र हे प्रभो जिससमय आपको लेकर इंद्र मेरुपर्वतको चला तथा आपको गोदमें बैठे हुए उसने देखा उससमय उसके नेत्रोंका निमेष (पलक) कर रहितपना तथा वहुतपना सफल हुवा ।
भावार्थ:-हे प्रभो इन्द्रके नेत्रोंकी अनिमेषता और अधिकता आपके देखनेसे ही सफल हुई थी यदि इन्द्र आपके स्वरूपको न देखता तो उसके नेत्रोंका पलकरहितपना और हजार नेत्रोंका धारण करना, सर्वथा निष्फल ही समझा जाता ।
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SH॥३५॥४
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