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पचनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः--आचार्य कहते हैं कि हे प्रभो हे जिनेंद्र जिनभव्यजीवोंके ज्ञानकी ज्योति स्फुरायमान है और जो आपको मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं वे तो दूरही रहें किंतु हे भगवन् मापके समीप रहाहुआ जड़ भी वृक्ष, अशोक हो जाता है।
भावार्थ:-हे जिनेश जिनको ज्ञान मौजूद है अर्थात् जो ज्ञानी हैं तथा आपको मस्तक झुकाकर नमस्कार करनेवाले हैं ऐसे भव्यजीव आपके पासमें रहकर तथा आपका उपदेश सुनकर शोकरहित होजाते हैं इसमें तो कोई आश्चर्य नहीं किन्तु जो वृक्ष जड़ है वह भी आपके केवल समीपमें रहा हुआ ही अशोक हो जाता है इसमें वड़ाभारी आश्चर्य है ॥ २४ ॥
छत्तत्तयमालंवियणिम्मलमुत्ताहलच्छलात्तुज्झ । जणलोयणेसु वरिसइ अमयंपिव णाह विंदूहि ॥
छत्रत्रयमालवितनिर्मलमुक्ताफलन्छलात्तव
अनलोचनेषु वर्षति अमृतमिव नाथ विंदुभिः ॥ अर्थः-हे भगवन् हे नाथ आपके जो ये तीनों छत्र हैं वे लटकतहुए जो निर्मल मुक्ताफल उनके व्याजसे मनुष्योंकी आंखों में विदुओंसे अमृतकी वर्षा करते हैं ऐसा मालूम होता है।
भावार्थ:-हे भगवन् जिससमय भव्यजीव आपके छत्रको देखते हैं उससमय उनको इतना आनंद होता है कि आनंदके मारे उनकी आंखोंसे अश्रुपात होने लगता है ॥२५॥
कयलोयलोयणुप्पलहरिसाह सुरेसहच्छचलियाह । तुह देव सरहससहरकिरणकयाइव्व चमराह ॥
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॥३४॥
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