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पचनन्दिपश्चविंशतिका ।
ही लोकोत्तर अर्थात् सबसे उत्तम होती है और आपके चरणों के आश्रयको प्राप्तहोकर, और भी वह अत्यंत महिमा को धारण करती है ॥ २२ ॥
निदोसी अकलंको अजडो बंदोव्य सहासितं तदवि । सीहासणापत्यो जिणंदकयवळयाणंदी ॥
निर्दोषः अकलंकः अजडः चंद्रवन् शोभते तथापि । सिंहासनाचलथः जिनेंद्र कृतकुवलयानंदः ॥
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अर्थः- हे जिनेंद्र हे प्रभो आप यद्यपि निर्दोष तथा अकलंक और अजड़ है तोभी अचल सिंहासनमें स्थित तथा किया है कुवलयको आनंद जिन्होंने ऐसे आप चंद्रमा के समान शोभित होते हैं ।
भावार्थ- आपतो निर्दोष हैं और चंद्रमा दोषा (रात्रि ) कर सहित है अर्थात् सदोष है और आपतो कर्मकलंककर रहित हैं किंतु चंद्रमा कलंककर सहित हैं तथा आप तो जड़ता रहित हैं किंतु चंद्रमा जड़ताकर सहित] है इसलिये इसरांतिसे तो आपमें तथा चंद्रमामै भेद है परंतु जिसप्रकार चंद्रमा पर्वतकी शिखिरपर स्थित रहता है और रात्रिविका सीकमलोंको आनंदका देनेवाला होता है इसलिये शोभाको प्राप्त होता है उसीप्रकार पर्वतके समान आप भी सिंहासनपर स्थित थे तथा आपने समस्त पृथ्वीमंडलको आनंद दिया था इसलिये आप भी चंद्रमा के समान ही शोभित होते थे ॥ २३ ॥
अच्छंतु ताव हयरा फ़रियविवेया णमंतसिरसिहरा । होइ असोहो रुक्खोव णाह तुह संणिहाणत्थो ॥
आस्तां तावत् इतरा स्फुरितविवेका नम्रशिरः शिखराः भवति आशाको वृक्षः अपि नाथ तव सन्निधानस्थः ॥
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