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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । ज्ञानस्वरूप आपका स्तवन तथा आपको नमस्कार नहीं करता उसका ज्ञान समस्तपदार्थीका विषयकरनेवाला नहीं होता किंतु जो मनुष्य आपकी भक्तिपूर्वक स्तुति करता है उसको विस्तृतज्ञानकी प्राप्ति होती है ॥४॥
अह्मारिसाण तुह गोत्तकित्तणेणवि जिणेस संचरई। आयेसम्मग्गती पुरडहियेहाच्छया लच्छी॥
अस्मारशां तव गोत्रकीतनेनापि जिनेश संचरति
आदेशं मार्गयंती पुरतोहृदयीप्सता लक्ष्मीः । अर्थः-डे जिनेद्र हेप्रभो आपके नामके कीर्तनमात्रसेही हमसरीखे मनुष्यों के आगे आज्ञाको मांगता हुई मनोवांछित लक्ष्मी गमन करती है।
भावार्थ:-हेजिनेन्द्र आपके नाममें ही इतनी शक्ति है कि आपके नामके कीर्तनमात्रसेही हमसरीखे मनुष्योंके सामने हमारी आज्ञाको मागती हुई लक्ष्मीदोड़ती फिरती है तब जो मनुष्य साक्षात् आपको प्राप्त करलेगा उसकी तो फिर बातही क्या है ? अर्थात् उसकोतो आवश्यही अंतरंग तथा वहिरंग लक्ष्मीकी प्राप्ति होगी॥५॥
जासिसिरी तइ संते तुव अवयणमित्तियेणठ्ठा । संके जणियाणट्ठा दिठ्ठा सव्वठ्ठसिद्धावि ॥
आसीत् श्रीः त्वथि सति त्वयि अवतीर्णे नष्टा
शंके जनितानिष्टा दृष्टा सर्वार्थसिद्धावपि । अर्थः--हे सर्वज्ञा हे जिनेश जिससमय आप सवार्थसिद्धिविमानमेंथे उससमय जैसी उस विमानकी शोभाथी वह शोभा आपके इसपृथ्वीतल उतरनेपर आपके वियोगसे उत्पन्नहुवे दुःखस नष्ट होगई ऐसा मैं (ग्रंथकार) शंका ( अनुमान ) करता हूं।
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