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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । होता था कि आप इसधर्मरुपीघरके स्थितरहनेमें प्रधानखंभही है अर्थात् जिसप्रकार मूलखंभके आधारसे घर टिका रहता है उसीप्रकार आपके द्वारा ही यह धर्म विद्यमान था ॥ १७ ॥
हिययत्थझाणसिहिओज्झमाणसहसासरीरघूमोव्व सोहइ जिण तुह सीसे महपरकुलसणिहकेसभरो॥
हदयस्थध्यानशिखिवामानशीघ्रशरीरधवत्
शोभते जिन तव शिरसि मधुकरकुलसानभः केशसमूहः । अर्थः--हे प्रभो हे जिनेंद्र भौंरॉकेसमूहके समान काला जो आपके मस्तकपर बालोंकासमूह है वह हृदयमें स्थित जो ध्यानरूपीअनि उससे शीघ्रजलायाहुआ जो शरीर उसके धूआंकेसमान शोभित होता है ऐसा मालूम पड़ता है।
भावार्थ:--धूआं भी काला है और भगवानके मस्तकपर विराजमान केशोंका समूह भी काला है इस लिये ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे प्रभो यह जो आपके मस्तकपर वालोंका समूह है वह वालोंका समूह नहीं है किंतु वैराग्यसंयुक्त आपके हृदयमें जलती हुई जो ध्यानरूपी अग्नि उससे जलायाहुआ जो आपका शरीर है उसका यह धूआं है ॥ १८ ॥
कम्मकलंकचउके णटेणिम्मलसमाहि भूईए तुहणाणदप्पणेचिय लोयालोयं पणिफलियं ।।
कर्मकलंकचतुष्के नष्टे निर्मलसमाधिभूत्या तव
ज्ञानदर्पणेऽत्र लोकालोकं प्रतिविम्बितम् ।। अर्थः-हे जिनेश हे प्रभो निर्मलसमाधिके प्रभावसे चार घातिया कोके नाशहोनेपर आपके सम्यग्ज्ञानरूपीदर्पणमें यह लोक तथा अलोक प्रतिविम्बित होता हुआ ।
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॥३॥
For Private And Personal