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॥३५३
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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थ-हे भगवन् आपमें यबड़ी भारी एक प्रकारकी खूबी मोजूद है कि जहांपर आप निवास करते हैं वहीं पर उत्तम शोभाभी रहती है क्योंकि जिससमय आप सर्वार्थसिद्धिनामके विमानमें विराजमानथे उस समय उसविमानकी बड़ी भारी शोभाथी किंतु जिससमय आप इस पृथ्वीतलमें उतरकर आये उससमय उस विमानकी उतनी शोभा नहीं रही किंतु इसपृथ्वीतलकी शोभा आधिक बढ़गई ॥६॥
णाहिघरे वसुहारा बडणंजं सुइर महितहो अरणी । आसि णहाहि जिणसेर तेण धरा वसुमयी जाया ।। नाभिगृहे वसुधारापतनं यत् सुचिरं महीमवतरणात
आसीत् नभसो जिनेश्वर तेन धरा वसुमती जाता । अर्थः-हे जिनेश्वर जिसमय आप इस पृथ्वीतलपर उतरेथे उससमय जो नाभिराजाके घरमें बहुत कालतक धनकी वर्षा आकाशसे हुई थी उसीसे हे प्रभो यह पृथ्वी वसुमती हुई है।
भावार्थ:-पृथ्वीका नाम वसुमती है और जो धनको धारणकरनेवाली होवे उसीको बसमती कहते हैं इसलिये ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि इस पृथ्वीका नाम वसुमती जो पड़ा है सो हे भगवन् आपकी कृपासे ही पड़ा है क्योंकि जिससमय आप सवार्थसद्धिविमानसे पृथ्वीमंडलपर उतरे थे उससमय बराबर १५ मासतक रत्नोंकी वृष्टि इसपृथ्वी मंडलमें नाभिराजाके घरमें हुई थी इसलिये पृथ्वीके समस्त दारिद्रय दूर होगये थे। किंतु पहिलै इसका नाम वसुमती नहीं था ॥ ७॥
सचियसुरणवियपया मरुएवी पहु ठिऊसि जं गम्भे । पुरऊपहो वज्झइ मज्झे से पुत्तवत्तीणं ॥
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॥३५शा
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