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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थः-नानाप्रकारके निशानोंको मार २ कर जिसबाणका अभ्यास कियागया है ऐसा वह वाण जिससमय वैरीका छदकरता है उससमय जिसप्रकार सफल समझाजाता है उसीप्रकार जिससमय सम्यग्दर्शन आदिके होते सन्ते समस्तकर्म नष्ट होजाते हैं उससमय सम्यग्दर्शन आदिक सफल समझेजाते हैं ॥ १५ ॥ सम्यग्ज्ञानकी जबतक प्राप्ति नहीं होती है तबतक कदापि जीव सिद्ध नहीं होसक्ता इसबातको आचार्य दिखाते हैं।
हिंसोज्झित एकाकी सर्वोपद्रवसहो वनस्थोऽपि ।
तरुरिव नरो न सिध्यति सम्यग्बोधाहते जातु ॥ १६ ॥ अर्यः-समस्तप्रकारकी हिंसाओंकरसहित और अकेला तथा समस्तप्रकारके उपद्रवोंको (विघ्नोंको) सहन करनेवाला मुनि तृक्षकेसमान वनमें स्थितभी सम्यग्ज्ञानके विना कभी भी सिद्ध नहीं बनसक्ता ।
भावार्थ--जबतक मुनि सम्यग्ज्ञानको नहीं प्राप्त करलेता तबतक चाहै तैसा वह हिंसाका त्यागी क्यों न हो और वह वनमें अकेलाही क्यों न रहताहो तथा समस्तप्रकारके उपसर्गोको भलीभांति सहनेवाला क्यों न हो कभी भी सिद्धपदवीको नहीं पासक्ता इसलिये सिद्धपदके अभिलाषियोंको चहिये कि वे सबसे पहले सम्यग्ज्ञानको प्राप्तकरें। शुद्धनयमें स्थित कोंन पुरुष होसक्ता है इसवातको आचार्यवर समझाते हैं।
अस्प्टष्टमवद्धमनन्यमयुतमविशसमभ्रमोपेतः।
यापश्यत्यात्मानं स पुमान् खलु शुद्धनयनिष्ठः ॥ १७॥ अर्थः-जो मनुष्य भ्रमरहित होकर आत्माको अस्पृष्ट अवड अनन्य अयुत अविशेष मानता है वही पुरुष शुद्धनयमें स्थित है ऐसा समझना चाहिये।
भावार्थ:-जो मनुष्य शुद्धनयका अवलम्बन करनेवाला है वह मनुष्य, जिसप्रकार जलमें पड़ाहुवा
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प३०५॥
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