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पचनन्दिपश्चविंशतिका । शरीरकोही नष्ट करते हैं किन्तु उसशरीरमें रहेहुवे निर्मलज्ञानमय आत्माको नष्ट नहीं करते ।
भावार्थ:-जिसप्रकार अमूर्तीक आकाशका मुर्तीक अग्नि कुछभी नहीं करसक्ती किन्तु वह मूर्तीक झोपडेकोही जलाकर नष्टकरदेती है उसीप्रकार आत्मातो अमृतीक और निर्मलज्ञानमय है इसलिये मुर्तीक शरीके धर्म जो रोग आदिक हैं वे इस आत्माका कुछभी नहीं करसक्ते किन्तु वे शरीरके ही नाश करनेवाले होते हैं इसलिये शरीरमें रोग आदिके होनेपर सज्जनपुरुषोंको कभीभी नहीं डरना चाहिये ॥ २३ ॥ क्षुधा आदिक जो दुःख हैं वे शरीरमें ही होते हैं इसवातको आचार्यवर वर्णन करते हैं।
वपुराश्रितमिदमाखलं क्षुधादिभिर्भवति किमपि यदसातम् ।
नो निश्चयेन तन्मे यदहं बाधाविनिर्मुक्तः ॥ २४ ॥ अर्थः-भूख प्यास आदिकारणोंसे जो दुःख होता है वह समस्तदुःख मेरे शरीरमें ही होता है और निश्चयनयसे वह शरीर मेरा नहीं है क्योंकि मैं समस्तप्रकारकी बाधाओंकर रहित हूं।
भावार्थः-मैं तो निर्मलज्ञानस्वरूप हूं और शरीर जड़पदार्थ है इसलिये वह मुझसे भिन्न है यदि असातावेदनीकर्मके उदयसे क्षुधा तृषा आदि कारणोंसे दुःखभी होवे तो वह दुःख शरीरमें होता है मुझे कोई दुःख नहीं होता क्योंकि मैं समस्तप्रकारके दुःखोंसे रहित हूं ॥ २४ ॥ क्रोध मान आदिकभी आत्माके धर्म नहीं हैं इसवातको आचार्य दिखाते हैं।
नैवात्मनो विकारः क्रोधादिः किन्तु कर्मसंवन्धात् ।
स्फटिकमणेरिव रक्तत्वमाश्रितात्पुष्पतो रक्तात् ॥ २५॥ अर्थः--जिसप्रकार लालफूलके आश्रयसे स्फटिकमाणि लाल होजाती है उसीप्रकार आत्मामें कर्मके
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३१०॥
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