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पचनन्दिपश्चविंशतिका । आत्मभुवि कर्मवीजाच्चित्ततर्यत्फलं फलति ।
जन्ममुक्तयर्थिना स दाह्यो भेदज्ञानोपदावेन ॥ २० ॥ आर्थः-आत्मारूपी भूमिमें कर्मरूपीवीजसे उत्पन्नहुवा मनरूपी वृक्ष, संसाररूपीफलको फलता है इसलिये आचार्य कहते हैं कि जिनको जन्मसे मुक्त होनेकी इच्छा है अर्थात् जो मुमुक्षु हैं उनको चाहिये कि वे भेदज्ञानरूपी जाज्वल्यमानअमिसे उसचित्तरूपी वृक्षको जला ।
भावार्थ:-जिसप्रकार भूमिमें उत्पन्नहुवा वृक्ष फल को देता है उसीप्रकार जिससमय मनकी सहायतासे इन्द्रियां विषयों में प्रवृत्त होती हैं उससमय नानाप्रकारके कर्मोंका संबंध आत्मामें होता है और फिर कर्मोंके संबंधसे आत्माको संसारमें भटकना पड़ता है इसलिये संसारका पैदा करनेवाला मन ही है अतः भव्यजीवोंको चाहिये कि वे इसमनको स्वपरकेविवेकसे सर्वथा नष्टकरें ॥ २० ॥ आत्माको कर्म अशुद्ध वनाते हैं तोभी भव्यजीवोंको भय नहीं करना चाहिये इसवातको आचार्य कहते हैं।
अमलात्मजलं समलं करोति मम कर्मकर्दमस्तदपि ।
का भीतिः सति निश्चितभेदकरज्ञानकतकफले ॥ २१ ॥ अर्थः यद्यपि कर्मरूपीकीचड़ अत्यंत निर्मलभी मेरे आत्मारूपीजलको गदला करती है तोभी मुझे कोई भयनहीं क्योंकि निश्चयसे स्वपरके भेदको करनेवाला ज्ञानरूपी कतक (फिटिकिरी) फल मेरे पास मोजूद है।
भावार्थ:-जिसप्रकार गदलेजलमें यदि फिटिकिरी छोड़दीजावे तो वह फिटिकिरी शीघ्रही उसजलमें रही हई कीचड़को नष्ट करदेती है और जलको निर्मल वनादेती है उसीप्रकार यद्यपि ज्ञानावरणादिकर्म आत्माको मलिन कररहे हैं तोभी स्वपरके भेदज्ञानसे वह कर्मोंसे कीहुई मलिनता पलभरमें नष्टहोजाती है इसलिये
k३०८॥
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