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पवनन्दिपञ्चविंशतिका । यदि मेरी आत्मामें स्वपरका भेद विज्ञान है तो चाहे जितना कर्म मेरी आत्माको मलिन करें मुझे किसीप्रकारका भय नहीं है ऐसा भेदज्ञानी सदा विचार करता रहता है ॥ २१ ॥ औरभी आचार्य कहते हैं।
अन्योहमन्यमेतच्छरीरमपि किं पुनर्न बहिरर्थाः ।
व्यभिचारी यत्र सुतस्तत्र किमरयः स्वकीयाःस्युः ॥२२॥ अर्थः-मैं अन्यहूं और यदि यह शरीरभी मुझसे अन्य है तो बाह्य जो स्त्री पुत्र आदिक पदार्थ हैं वे तो | मुझसे अवश्यही भिन्न है क्योंकि यदि संसारमें अपना पुत्रही अनिष्टका करनेवाला होजावे तो वैरीभी मेरे नहीं होसक्ते अर्थात् वेतो अवश्यही मेरे अनिष्टके करनेवाले होंगे।
भावार्थ:-संसारमें सबसे स्वकीय (अपना ) पुत्र समझा जाताहै यदि वहभी मुझे दुःखका देनेवाला होजावे और मेरे अनिष्टोंका करनेवाला होजावे तो वैरी तो अवश्यही अनिष्टके करनेवाले होंगे क्योंके वे पहिलेसही स्वकीय ( अपने) नहीं हैं उसीप्रकार संसारमें सबसे अधिक अपना संबंधी शरीर है यदि वहभी आत्मासे भिन्न है तो स्त्री पुत्र आदिकतो अवश्यही भिन्न हैं ऐसा समझना चाहिये ॥ २२ ॥ औरभी आचार्यवर आत्मा शरीरसे जुदा है इसवातको वताते हैं।
व्याधिस्तुदति शरीरं न माममूर्त विशुद्धबोधमयम् ।
अमिर्दहति कुटीरं न कुटीरासक्तमाकाशम् ॥२३॥ अर्थः-यदि झोपड़ेमें अग्नि लगजावे तो वह झोंपड़ेमें लगीहुई अग्नि झोंपड़ेकोही जलाती है किन्तु उसकेमध्यमें रहेहुवे आकाशको नहीं उसीप्रकार जो शरीर में नानाप्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं वे रोग उस
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३०९॥
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