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॥३२५॥
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पानन्दिपञ्चविंशतिका। उसीप्रकार जो जीव आत्माको सदा बंधा हुवा देखता है वह कर्मोसे बड ही रहता है और जो पुरुष आत्मा को सदा काँसे रहित देखता है वह मुक्त ही होता है।
भावार्थः-जिसप्रकार जो मनुष्य जिसनगरके मार्गसे गमन करता है वह उसी नगरमें पहुंचता है उसी प्रकार जो मनुष्य जिसप्रकारके आत्माका आराधन करता है वह उसीप्रकारके आत्मस्वरूपको प्राप्त होता है अर्थात् यदि वह आत्माकी भावना करनेवाला कौसे बह आत्माका ध्यान करेगा तो उसकी आत्मा कर्मोसे बहही रहेगी और यदि वह कर्मोंसे मुक्त आत्माका ध्यान करेगा तो उसकी आत्मा मुक्त ही होवेगी ॥ १८ ॥ मनको इसरीतिसे शिक्षा देनीचाहिये ।
मागा बहिरन्तर्वा साम्यसुधापानवर्द्धितानन्द ।
आस्व यथेव तथैव च विकारपरिवर्जितः सततम ॥ ४९ ॥ अर्थः--समतारुपी जो अमृत उसके पीने से बढ़ा है अनंद जिसको ऐसा हे मन, तू बाहर तथा भीतर मत गमन करै और जिसरीतिसे तू समस्तप्रकारके विकारोंसे रहित हो उसी प्रकारसे रह ।
भावार्थः-जवतक मन जहांतहां घूमता फिरता है तबतक साम्यभावका अनुभव नहीं करसक्ता और नानाप्रकारोंके विकारोंसे विकृत हो जाता है किन्तु जिससमय उसका जहांतहां घूमना बंद हो जाता है उस समय वह समताका अनुभव करता है तथा विकारोंसे विकृतभी नहीं होता इसलिये आचार्यवर इस बातको समझाते हैं कि भव्यजीवोंको मनको इसरीतिसे शिक्षा देनी चाहिये कि हे समतारुपीअमृतके पानसे अत्यंत आनंदित मन, तू बाहर तथा भीतर कहीं भी मत घूमे और जिस प्रकारसे वने उसप्रकारसे तू समस्त विकार रहितही रह ॥४९॥
१३५२॥
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