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पचनन्दिपश्चविंशतिका । यतियोंके यतिपनेका भी नाम निशान उड़जाता है ॥ ७॥
और भी आर्चयवर स्त्रीके विषयमें उपदेश देते हैंतावत्पूज्यपदस्थितिः परिलसत्तावद्यशो जुभते तावच्छुभ्रतरा गुणाः शुचिमनस्तावत्तपो निर्मलम् । तावद्धर्मकथापि राजति यतेस्तावत्स दृश्यो भवेत् यावन्न स्मरकारि हारि युवते रागान्मुखं वीक्षते ॥
अर्थः--जबतक यति, प्रीतिसे कामके उद्दीपनकरनेवाले तथा मनोहर खीके मुखको नहीं देखता तभीतक वह यति पूज्यपदमें अर्थात् उत्तमपदमें स्थित रहता है और तभीतक उसयतीका शोभायमान यश वृद्धिको प्राप्त होता रहता है तथा तभीतक उसके गुण निष्कलंक रहते हैं और तभीतक उसयतीश्वरका मन पवित्र बना रहता है तथा उसीसमयतक उसका निर्मल तप रहता है तथा उसीसमयतक उसकी धर्मकथा शोभित रहती है और तभीतक वह देखने योग्य वनारहता है किंतु स्त्रीके मुखदेखतेही ये कोई बातें नहीं रहती इसलिये यतियों को स्त्रीका मुख कदापि नहीं देखना चाहिये ॥ ८॥
मुनीश्वरोंको स्वीका सर्वथा त्यागकरदेना चाहिये इसबातको आचार्ययर बताते हैंतेजोहानिमपूततां ब्रतहतिं पापं प्रपातं पथो मुक्तेरागितयांगनास्मृतिरपि क्लेशं करोति ध्रुवं । तत्सानिध्यविलोकनप्रतिवचःस्पर्शादयः कुर्वते किं नानर्थपरंपरामिति यतेस्त्याज्यावला दूरतः ॥९॥
अर्थ:-जिसस्त्रीका रागसहितपनेसे स्मरणभी तेजकी हानिको करता है तथा अपवित्रताको करता है | और बचोंके नाशको करता है तथा पापकी उत्पत्ति करता है और मोक्षके मार्गसे मनुष्योंको गिराता है और निश्चयसे नानाप्रकारके क्लेशोंको करता है तब उसस्त्रीके समीपमें रहना तथा उसका देखना और उसके साथ वचनालाप, और उसके स्पर्श, आदिक किस २ अनर्थको नहीं करते? अर्थात् सर्वही अनर्थों को करते हैं इस
॥३३८०
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