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३४९॥
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पअनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थरूपजलसे २२ श्लोकोंमें बनाई है इसलिये जो मनुष्य समस्तप्रकारके पारग्रहोंसे रहित निग्रंथ है और प्रबलतपस्वी तथा परलोकके देखनेके अभिलाषी हैं उनको अवश्य ही इस कामरूपीज्वरको शमन करनेवाली सलाई (ब्रह्मचर्यरक्षावर्ति) का सेवनकरना चाहिये अर्थात् उनको अवश्यही पूरीतौरसे ब्रह्मचर्यका रक्षणकरना चाहिये ॥२२॥ इसप्रकार श्रीपद्मनंदिआचार्यद्वारा रचित श्रीपद्मनंदिपंचविशतिकामें ब्रह्मचर्यरक्षावर्तिनामक
अधिकार समाप्तहुआ ।
0000ऋषभस्तोत्रप्रारंभः ।
गाथा । जय उसह णाहिणंदण तिहुवणणिलयेकदीव तित्थयर । जय सयलजीववच्छल णिम्मलगुणरयणणिहि णाह॥
जय कपभ गाभिनंदन त्रिभुवननिलयकदीप तीर्थकर
जय सकलजीववत्सल निर्मलगुणरत्ननिर्थ नाथ ।। अर्थः--श्रीमान नाभिगजाकेपुत्र, तथा उर्ध्वलोक मध्यलोक और अधोलोकरूपी जो घर उसकेलिये दीपक, तथा धर्मतीर्थकी प्रवृत्तिकरनेवाले, हे ऋषभदेव भगवान तुम सदा इसलोकमें जयवंत रहो । तथा समस्त जीवोंपर वात्सल्यको धारणकरनेवाले, और निर्मल जो गुण वेही हुए रत्न उनके आकर (खजाना) एसे हे नाथ तुम सदा इसलोकमें जयवंत रहो ॥ १ ॥
सयलसुरासुरमाणिमउडकिरणकब्बुरियपायपीठ तुम धण्णा पेच्छंति थुणंति जवंति झायंति जिणणाह ।
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Alhag९॥
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