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1३४८॥
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पमनान्दपश्चविंशतिका । नरभवमें होती है और उसतपसे मोक्षपदकी प्राप्ति होती है तथा उसमोक्षपदमें साक्षात् सुखमिलता है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि ऐसा भलीभांति चित्तमें विचारकर जो मनुष्य उत्तमसुखकी प्राप्तिके अभिलाषी हैं उनको अवश्य ही निर्मलतप करना चाहिये ।
भावार्थ:--यद्यपि इस नरभवमें बहुतसे दुःख है तथा अपवित्र और थोड़ी आयु है और थोड़ा ज्ञान है तथा इसनरभवमें मरणके दिनका भी निश्चय नहीं है जरासे बुद्धि भी नष्ट है तौभी तपकी प्राप्ति इसनरभवमें ही होती है और उसतपसे मोक्षपदकी प्राप्ति होती है तथा मोक्षमें साक्षात् सुख मिलता है इसलिये ऐसा विचारकर और इस उत्तमनरभवको पाकर मनुष्य को निर्मलतप अवश्य करना चाहिये किन्तु व्यर्थ ही इसनरभवको व्यतीत नहीं करना चाहिये ॥ २१॥ उक्तेयं मुनिपद्मनंदिभिषजा द्वाभ्यां युतायाः शुभा सद्धत्तौषधिविंशतेरुचितवागाम्भसा वर्तिता ॥ निग्रन्थैः परलोकदर्शनकृते प्रोद्यत्तपोवार्द्धकैश्चेतश्चक्षुरनंगरोगशमनी वर्तिः सदा सेव्यताम् ॥
अर्थः-श्रीपद्मनंदिनामक वैद्यहारा, उचित जो वचन और अर्थ वही हुआ जल उससे दो श्लोकों कर सहित तथा श्रेष्ठ छन्दरूपही हैं औषधि जिसमें ऐसी जो विशति उससे “अर्थात वाईस श्लोकोंसे" यहशुभ सलाई (ब्रह्मचर्यरक्षावर्ति) बनाई है इसलिये जो समस्तप्रकारके परिग्रहोंकर रहित निग्रंथ है और उन्नत जो तप उससे वर्धमान है अर्थात् जो अत्यंत तपस्वी हैं उनको मनरूपी नेत्रमें स्थित जो कामरूपीरोग, उसको शांत करनेवाली यह सलाई परलोकके दर्शनकलिये अवश्य ही सेवनीय है।
भावार्थ:-जिसप्रकार नेत्रका रोगी पुरुष नेत्रसे देखनेकेलिये किसी वैद्यहारा उत्तमजलसे बनाईहई सलाईका सेवन करता है उसीप्रकार आचार्यवरपद्मनंदिनामकवैद्यने भी यह ब्रह्मचर्यरक्षावाति उत्तम वचन तथा
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