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॥३३॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । लिये ऐसी स्त्री यतियोंको दूरसे ही त्यागने योग्य है ।
भावाथें:-जब स्त्रीका न कुछ स्मरणही तेजका नाशकरता है और पवित्रता नहीं होने देता तथा समस्तप्रकारके व्रतोंको जड़से उड़ाता है और मोक्षमार्गसे भ्रष्ट करता है और नानाप्रकारके दुःखोंको देता है तब उसके पास रहना उसका देखना उसके साथ बार्तालाप करना और स्पर्श आदिकरना किस २ अनर्थको न करेगा ? इसलिये अपने हितके अभिलाषीयतीश्वरोंको चाहिये कि वे सर्वथा खीसे दूररहै ॥९॥
और भी भाचार्यवर मुनीश्वरोंको उपदेश देते हैंवेश्या स्याद्धनतस्तदस्ति न यतेश्चेदस्ति सा स्यात्कुतो नात्माया युवतिर्यतित्वमभवत्तत्त्यागतो यत्पुरा । पुंसोऽन्यस्य च योषिता यदि रतिश्छिन्नो नृपात्तत्पतेः स्यादापजननद्वयक्षयकरी त्याज्यैव योषा यते॥
आर्थ:-यदि मुनि वेश्याके लोलुपी वने तो वेश्या उनको मिल नहीं सकती क्योंकि वेश्या अधिक धन होनेपर ही प्राप्त होती है और वह धन यतीके पास है नहीं, यदि कदाचित् धनभी होवे तो वेश्या उनको मिल नहीं सकती और अपनी स्वीकीभी यतिको प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि पहिले उसस्त्रीके त्यागसेही यतिपना | हुवा है और यदि दूसरे पुरुषकी स्त्रीके साथ यति रतिकरें तो वे राजासे छेदन आदिक दंडको प्राप्त होते हैं तथा उसस्त्रीके पतिके द्वाराभी वहुतसे कष्टोंको पाते हैं इसलिये यतियोंको दोनों जन्मोकी नाशकरनेवाली स्त्री का सर्वथा त्यागकरदेना चाहिये।
भावार्थ:--यदि स्त्रीके साथमें प्रीतिकरनेसे कुछ सुखमिलता तबतो यतियोंको स्त्रीकेसाथ प्रीतिकरना अच्छा होता किन्तु स्त्रीके साथमें प्रीतिकरने में तो अंशमात्रभी सुख नहीं क्योंकि वेश्याके साथ प्रीति लो धन से होती है सो घन यतीके पास है नहीं, इसलिये उनको एकप्रकारका कष्टही है यदि कदाचित् उनके पास
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