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पद्यनन्दिपश्चविंशतिका। करते हैं और यदि जाग्रतअवस्थामें रागकी अधिकतासे वा खोटे आशयसे अथवा कर्मके गौरवसे अतीचार न लगे तो मुनि उसका बड़ाभारी संशोधन करते हैं ॥३॥
साधुके दृढ़मनका संयम जो है वही ब्रह्मचर्यकी रक्षाकरता है इसवातको आचार्य दिखाते हैं। नित्यं खादति हस्तिसूकरपल सिंहोवली तद्रतिवर्षेणैकदिने शिलाकणचरे पारावते सा सदा।। न ब्रह्मव्रतमति नाशमथवा स्यान्नैव भुक्तेर्गुणात्तद्रक्षां दृढ एक एव कुरुते साधोर्मन-संयमः ॥४॥
अर्थः-भोजनके गुणसे अर्थात् भोजनके करनसे ब्रह्मचर्यवत नष्ट होता है तथा भोजनके न करनसे ब्रह्मचर्यव्रत पलता है यह बात नहीं है क्योंकि अत्यंत बलवान सिंह सदा हाथी तथा सूहरके मासको खाता है किंतु वर्षमें वह एकहीसमय रतिको करता है तथा कबूतर सदा पत्थरके टुकड़े खाता है तोभी वह सदा रंति करता रहता है किंतु ब्रह्मचर्य का पालन (रक्षा) एकमात्र साधुका दृढ़ जो मनका संयम है वहीं करता है।
भावार्थ:-वहुतसे मनुष्य ऐसा समझते हैं कि पुष्ट भोजनकरनेसे ब्रह्मचर्य नहीं पलता है और पुष्ट भोजनके न करनेसे ब्रह्मचर्य पलता है सो यहबात नहीं क्योंकि यदि पुष्टभोजन करनेसेही कामकी अतितीव्रता होती तो सिंहको भी आधिक कामी होना चाहिये क्योकि वहभी तो दिनरात हाथी तथा सूहरके अत्यंत पुष्ट मांसको खाता है किंतु वह रति वर्ष में एकही दिवस करता है तथा यदि पुष्ट भोजनके न करनेसे ही काम अधिक नहीं सताता है तो कबूतर जोकि रातदिन रूखे पत्थरके टुकड़ोंको खाता, है उसै कामको अधिक नहीं सताना चाहिये किंतु देखनमें आता है कि कबूतर बड़ा कामी होता है तथा सदा रति करता रहता है इसलिये पुष्टभोजनकरनेसे ब्रह्मचर्यका नाश होता है तथा पुष्टभोजनके न करने से ब्रह्मचर्यका पालन होता है यह बात नहीं किंतु ब्रह्मचर्यकी रक्षाका कारण एकमात्र साधुका दृढ़मनका संयमही है और बढ़मनका
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