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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-उसचैतन्यरूपको नमस्कार करो जिस चैतन्यरूपकी प्राप्तिके होनेपर मुनिगण सर्वथा नष्टहो गये हैं विकल्परूपी वृक्ष जिनसे ऐसे हृदयोंको जले हुवे वनोंके मानिन्द धारण करते हैं ।
भावार्थः-जबतक मनुष्यों के चित्तमें नानाप्रकारके विकल्पलगे रहते हैं तबतक मनुष्योको कभी भी सुखकी प्राप्ति नहीं हो सक्ती किन्तु जिसचैतन्यके होतेसन्ते मनुष्योंके मनके समस्तविकरुप नष्ट होजाते हैं ऐसे उसचैतन्यतत्त्वको नमस्कार करो ॥ ५२ ॥ जिससमय समस्तनयोंका पक्षपात नष्ट हो जाता है उससमय समयसारकी प्राप्ति है इसबातको आचार्यवर दिखाते हैं।
बद्धो वा मुक्तोवा चिद्रूपो नयविचारविधिरेषः ।
सर्वनयपक्षरहितो भवति हि साक्षात्समयसारः ॥ ५३ ॥ चैतन्यखरूप आत्मा काँसे बधाहुवा है तथा काँसे रहितभी है यह नयविचारकी विधि है और समस्त नयों के पक्षसे रहित होनेपर ही निश्चयसे समयसार होता है।
भावार्थः-समयसार नाम शुद्धात्माका है उसशुद्धात्माकी प्राप्ति उसी समय होती है जिससमय समस्त निश्चय तथा व्यवहारनयका पक्षपात दूर होजाता है किन्तु जकतक व्यवहारनयसे आत्मा बंधाहुवा है तथा निश्चयनयसे आत्मा मुक्त है इसप्रकारका नयका पक्षपात रहता है तब तक उस समयसार शुद्धात्माकी प्राप्ति कदापि नहीं होसक्ती इसलिये शुद्धात्माकी प्राप्तिके इच्छुकोंको नयोंके पक्षपात कर रहित ही रहना चाहिये॥५३॥
नाटकसमयसारमेंभी कहा है।
एकस्य बद्धो न तथा परस्य चितिद्वयोर्दाविति पक्षपातौ । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥१॥
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॥३२॥
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