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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । मृगयमाणेन सुचिरं रोहणभुवि रत्नमीप्सितं प्राप्य ।
हेयाहेयश्रुतिरपि विलोक्यते लब्धतत्वेन ॥ ५८ ॥ अर्थः-रोहणपर्वतकी भूमिमें चिरकालसे रत्नको इड़नेवाला मनुष्य दैवयोगसे इष्टरत्नको पाकर जिस प्रकार यह तल हेय है अथवा उपादेय है इसबातका बिचार करता है उसीप्रकार जिसमनुष्यको बास्तविकतख की प्राप्ति होगई है उसको भी यह तल हेय है अथवा उपादेय है ऐसा विचार करना चाहिये । _ भावार्थः-जिसप्रकार किसीमनुष्यको रत्नकी इच्छा हुई और उसी इच्छासे वह रोहणाचलकी भूमि में रत्न हुड़ने लगगया और उसको इष्टरत्नकी प्राप्तिभी होगई उमसमय जिसप्रकार वह मनुष्य विचार करता है कि यह तल हेय है अथवा अहेय है अर्थात् छोड़ने योग्य है अथवा ग्रहणकरने योग्य है उसीप्रकार अनादि कालसे तत्वकी प्राप्तिके इच्छुक मनुष्यको यदि भाग्यवश तत्व मिलजावे तो उसको भी इसप्रकारका विचार करना चाहिये कि यह तब मुझे ग्रहण करने योग्य है कि छोड़ने योग्य है॥ ५८॥ तत्वज्ञानीको इसरीतिसे विचारकरना चाहिये ।।
कर्मकलितोपि मुक्तः सश्रीको दुर्गतोप्यहमतीव ।
तपसा दुख्यपि च सुखी श्रीगुरुपादप्रसादेन ॥ ५९ ॥ जर्थः यद्यपि ज्ञानावरण आदि काँसे मेरी आत्मा संयुक्त है तोभी मैं श्रीगुरुके चरणारविंदकी कृपासे सदा मुक्त हूं और यद्यपि मैं अत्यंत दरिद्री हूं तोभी मैं श्रीगुरूके चरणोंके प्रसादसे लक्ष्मीकर सहित हूं
और यद्यपि मैं तपसे दुःखित हूं तोभी श्रीगुरूके चरणोंकी कृपासे मैं सदा सुखी ही हूं अर्थात् मुझे किसी प्रकारका संसारमें दुःख नहीं है ॥ ५९ ॥
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॥३३१॥
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