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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थ:-व्यवहारनयसे तो आत्मा कौसे बंधा हुवा है और निश्चयनयसे आत्मा मुक्त है इसप्रकार इन दोनोंप्रकारके आत्माओंमें दोनों प्रकारके पक्षपात है जो मनुष्य वास्तविक तत्वका जाननेवाला है और समस्त प्रकारके नयोंके पक्षपातोंसे रहित है उसका चैतन्य है सो निश्चयकरके चैतन्य ही है ॥ १ ॥ और भी कहा है
अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पैरयमिव परमार्थः सेव्यतां नित्यमेव ।
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रान्न खलु समयसारादुत्तरं किञ्चिदस्ति ॥ २॥ अर्थः-नानाप्रकारके जो खोटे २ विकल्प उनके अत्यंतकहनेसे पूर्णहो पूर्णहो सदा इसपरमार्थ परमात्मा की ही सेवा करो क्योंकि अपना रस जो विसर अर्थात् फैलाव उससे परिपूर्ण जो ज्ञान उसकी है केवल प्रकट ता जिसमें ऐसे समयसारसे उत्कृष्ट, यहांपर कोईभी वस्तु नहीं है अर्थात् समयसारही उत्कृष्ट वस्तु है ॥२॥ आत्मा नय प्रमाण निक्षेपआदिविकल्पोंसे भी रहित है इसबातको आचार्यवर दिखाते हैं ?
नयनिक्षेपप्रामतिप्रभृतिविकल्पोज्भितं परं शान्तम् ।
शुद्धानुभूतिगोचरमहमेकं धाम चिद्रूपम् ॥ ५४ ॥ अर्थः--जिसमें नय निक्षेप प्रमिति आदिक किसी प्रकारके विकल्प नहीं है और जो उत्कृष्ट है तथा शांत है और शुद्धानुभवके गोचर है तथा एक है वह चैतन्यरुपी तेज मैं ही हूं ॥
भावार्थः-नतो मुझमें द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकखरूप नयका विकल्प है और न प्रत्यक्ष परोक्षरूपप्रमाण का विकल्प है तथा नाम स्थापना आदि निक्षेपका विकल्प भी मुझमें नहीं है और में उत्कृष्ट हूं तथा शांत
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