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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थ:-शास्त्रकेद्वारा भलीभांति कहे हुवेभी अत्यंत विशुद्ध परमात्मतत्वको चाहै मन, स्वीकार करो तोभी वह मनके गम्य नहीं है अर्थात् मन उसको नहीं जानसक्ता है।
भावार्थः-यद्यपि शास्त्रने उस अत्यंतशुद्ध परमात्माके स्वरूपका भलीभांति वर्णन किया है और उस परमात्मतत्वको मनने स्वीकारभी करलिया है तो भी वह मनके गोचर नहीं है अर्थात् मन उसको भलीभांति जान नहीं सक्ता क्योंकि मन सविकल्पक है तथा आत्मा निर्विकल्पक है इसलिये मन उसको कैसे जानसक्ता है? ॥eans अद्वैतभावनासे मोक्ष होती है इसवातको आचार्य वर्णन करते हैं ।
अहमेकाक्यदैतं दैतमहं कर्मकलित इति बुद्धः।
आद्यमनपायि मुक्तरद्विविकल्पं भवस्य परम् ॥ ४५ ॥ अर्थः-मैं अकेला हूं इसप्रकारकी जो बुद्धि है वह तो अबैत बुद्धि है और कमोंकर सहित हूं इस प्रकारकी जो बुद्धि है वह दैत बुद्धि है इनदोनों बुद्धियोंमें आदिकी जो अविनाशी अहैत बुद्धि है वह तो मोक्ष की कारण है और दूसरी जो दैतबुद्धि है वह संसार की कारण है।
भावार्थ:-जवतक मैं, तथा अन्य, इसप्रकारका द्वैत भाव रहता है तबतक जीघको संसारमें डोलना पड़ता है किन्तु जिससमयमें यह हैतभाव नष्ट हो जाता है अर्थात् अद्वैत भाव हो जाता है उसीसमय जीव मोक्षको प्राप्त होता है क्योंकि मैं तथा तू इत्यादि विकल्परहित निर्विकल्पकअवस्थाहीका तो नाम मोक्ष है इसलिये मोक्षाभिलाषी भव्यजीवोंको चाहिये कि वे मैं अकेलाही हूं इसप्रकारके अद्वैतभावका ही चिंतवन करें ॥ ४५ ॥
हैत तथा अद्वैतभावसे रहितपनाही मोक्ष है इसबातको आचार्य बतलाते है।
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1323॥
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