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॥३२२॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । विभागको करके “अर्थात् ज्ञान आत्माका धर्म है तथा राग शरीरका धर्म है इसवातको भलीभांति जानकर" यह निर्मलभेदज्ञान उत्पन्न होता है इससमय मोक्षाभिलाषी जो भव्यजीव हैं वे शुद्ध जो ज्ञान बहीहै धनका समूह जिसके उसको अर्थात् आत्माको प्राप्तहोकर और परपदार्थों के संबंधसे रहित होकर चिरकालतक आनंदसे रहो।
भावार्थ:-स्व तथा परके विभागसे आत्मा शुद्ध होता है इसलिये भव्यजीवोंको स्वपरविभागकी और अवश्य लक्ष्य देना चाहिये ॥ ४२ ॥ निश्चयकर आत्मा हेयोपादेयके विभागसे भी रहित है इसवातको आचार्यवर दिखाते हैं।
हेयोपादेयविभागभावना कथ्यमानमपि तत्वम् ।
हेयोपादेयविभागभावनावर्जितं विद्धि ॥ ४३ ॥ अर्थः--जो तत्व हेय तथा उपादेयकी भावनाकर रहित कहागया है वह तत्व भी निश्चयसे हेय तथा उपादेयकी भावना कर रहित ही है ऐसा समझो।
भावार्थ:-जड़रूपजो परतत्व है वहतो हेय है और चैतन्यरूप जो स्वतत्व है वह उपादेय है इसप्रकार स्वपरविभागकी भावनासे जो चैतन्यतत्वका वर्णन कियागया है वह तत्व भी वास्तविकरीतिसे हेय तथा उपादेयकी भावनाकर रहितही है क्योंकि जिससमय शुद्धनिश्चयनयका आश्रयण कियाजाता है उससमय निर्विकल्पक अवस्था होती है तथा उस अवस्थामें हेय उपादेय आदिक कोई भी किसीपकारका विकल्प नहीं होता॥४३॥ शुदात्मतत्व मनके गोचर नहीं हैं इसवातको भी आचार्य बतलाते हैं।
प्रतिपद्यमानमपि च श्रुतादिशुद्धं परात्मनस्तत्वम् । उररीकरोतु चेतस्तदपि न तचेतसोगम्यम् ॥ ४४ ॥
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