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Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपञ्चविंशतिका । स्वपर विभागावगमे जाते सम्यक् परे परित्यक्ते।
सहजबोधेकरूपे तिष्ठत्यात्मा स्वयं शुद्धः॥ ४२ ॥ अर्थ:-जिससमय आत्मामें स्वपरके विभागका ज्ञान होजाता है और त्यागने योग्य जो वस्तु उनका त्याग होजाता है उससमय स्वाभाविक निर्मलज्ञान स्वरूप जो अपना रूप है उसमें आत्मा ठहरता है और पीछे स्वयं शुद्ध होजाता है।
भावार्थः--यहवस्तु मेरी है और यह वस्तु मेरी नहीं है जबतक इसप्रकारका स्व परका विवेक आत्मामें नहीं होता है और जबतक आत्मा परपदार्थोंको नहीं छोड़ता है तबतक आत्मा बाद्यपदार्थों में ही घूमा करता है और स्वस्वरूपमें कभीभी स्थिर नहीं रहता इसीलिये शुद्धभी नहीं होता किन्तु जिससमय ज्ञान दर्शन आदिक मेरे हैं और रूप रस आदिक मेरे नहीं हैं इसप्रकारका आत्मामें विवेकज्ञान होजाता है और रूप रस आदिक जो पर हैं उनसे वह जुदा होजाता है उससमय वह स्वाभाविक निर्मलज्ञानरूप अपने स्वरूपमें स्थिर होजाता है और अत्यंत शुद्ध होजाता है॥ ४२ ॥
इसीश्लोकके आशयको लेकर समयसारमें भी कहा है। चैद्रूप्यं जड़रूपतां च दधतोः कृत्वा विभाग द्वयोरन्तरुणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च । भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना सन्तो द्वितीयच्युताः॥
आर्थः-चैतन्यरूपता और जड़रूपताको धारणकरनेवाले अर्थात् चेतन और जड़ जो आत्मा और शरीर हैं उनके, विभागको करके (उनको जुदी २ रीतिसे जानकर) और अच्छीतरह अंतरंगसे, ज्ञानके तथा रागके
16. पुस्तक "बद्दजैकयोधरुले तिष्ठत्वात्मा पर खिदः" यह भी पाठ है इसमें सिद्ध पक्षका अर्थ बदी।
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अायतका
BRan
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