________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀ ܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
पचनन्दिपञ्चविंशतिका । त्यागनेयोग्य हैं इसप्रकारकी बुद्धि भी उसतत्त्वको प्रकट करती है कि जिसतवकी प्रकटतासे चैतन्यतत्व सदा बढ़ताही चला जाता है इसलिये मोक्षाभिलाषियोंको अवश्यही समस्तचिंताओंका त्यागकरदेना चाहिये ।।३५॥ और भी आचार्यवर चैतन्यके स्वरूपको वर्णन करते हैं ।
चैतन्यमसम्पृक्तं कर्मविकारेण यत्तदेवाहम्
तस्य च संसृतिजन्मप्रभृति न किंचित्कुतश्चिंता ॥ ३६॥ अर्थः-जो चैतन्य, कर्मों के विकारोंसे अलिप्त है वही चैतन्य मैं हूं और उसचैतन्य के संसार में जन्म मरण आदिक कुछ भी नहीं हैं फिर किससे चिंता करनी चाहिये ।
भावार्थः-यदि चैतन्यमें जन्म मरण आदिक होते तो चिंता होती किन्तु चैतन्यमें तो न जन्म है और न मरण है और वह चैतन्य रागद्वेष आदिक जो कर्मोंके विकार हैं उनसे अलिप्त है और उसी चैतन्य स्वरूप मैं हूं इसलिये मुझे चिंता नहीं करनी चाहिये ॥ ३६॥ मनको वशमें रखना चाहिये इसबातको आचार्य दिखलाते हैं।
चित्तेन कर्मणा त्वं वद्धो यदि बध्यते तया तदतः
प्रतिवन्दीकृतमात्मन् मोचयति त्वां न सन्देहः ॥ ३७॥ अर्थ:--अरे आत्मा तू इसमनकी कृपासे कर्मोंसे बंधाहुआ है यदि तू इसमनको बांधलेवे अर्थात् मनको वशमें करलेवे तो इसमें किसीप्रकारका संदेह नहीं कि बंधाहुआ तू छुटजावेगा।
भावार्थः-आचार्य उपदेश देते हैं कि तेरा सबसे अधिक वैरी मन है क्योंकि जबतक यहमन वशमें नहीं होता तबतक इसीकी कृपासे नानाप्रकारके कर्म आते हैं और तुझे बांधते हैं और इसीकी कृपासे तू इस
140..................................................०००
For Private And Personal