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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । अर्थः-द्वितीयवस्तुके होते सन्ते तो चिंता होती है और चिन्तासे कर्मोंका आगमन होता है और कर्मोंसे जन्महोता है इसलिये निश्चयसे मोक्षकी इच्छा करनेवाला में अकेलाहूं तथा समस्तप्रकारकी चिंताओंसे रहितहूं।
भावार्थ:-यह नियम है कि संसारमें जो जीव दुःखित हैं वे कर्मोंसे बंधेहुए हैं इसीलिये दुःखित हैं और आत्माकेसाथ जो कर्मोंका बंध है वह चिंतासे है और वह चिंता द्वितीयपदाथोंके होते सन्तेही होती है इसीलिये मोक्षामिलाषी ऐसा विचार करता रहता है कि निश्चयसे मैं अकेला हूं और समस्त प्रकारकी चिंतओंसे भी रहित हूं ॥३२॥ और भी मोक्षाभिलाषी इसप्रकारका विचार करता रहता है।
यादृश्यपि तादृश्यपि परतचिंता करोति स्वलु बन्धम्
किं मम तया मुमुक्षोः परेण किं सर्वदैकस्य ॥ ३३ ॥ अर्थः -चिंता जिस २ प्रकारकी होती है उस २ प्रकारकी वह समस्तचिंता बंधको ही करनेवाली होती : । है मैं तो मोक्षकी इच्छा करनेवाला हूं इसलिये मुझै उसचिंतासे क्या प्रयोजन है और मैं तो सदा एक हूं का इसलिये मुझे दूसरे पादार्थोंसे भी क्या प्रयोजन है।
भावार्थः--चिंता दोप्रकारकी है एक तो शुभचिंता दूसरी अशुभचिंता उनमें शुभचिंता तो उसेकहते हैं जो शुभपदार्थों की चिंता की जाय जिसप्रकार तीर्थकरके आसन आकार आदिककी, और अशुभचिंता उसे कहते हैं जो अशुभपदार्थों की चिंता की जाय जिसप्रकार स्त्री पुत्र आदिककी चिंता, किन्तु ये दोनों ही चिंता बंधकी ही कारण हैं, क्योंकि शुभचिंताके करनेसे शुभकर्मों का बंध होता है और अशुभचिंताके करनेसे अशुभकाँका बंध होता है और पीछे संसारमें भटकना पड़ता है इसलिये मोक्षाभिलाषी ऐसा विचार करता है कि मैं मुमुक्षु हूं इसलिये मुझे चिंतासे क्या प्रयोजन है और मैं सदा अकेला हूं इसलिये मुझे पर जो स्त्री
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३१५॥
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