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पचनन्दिपश्चविंशतिका । इसलिये वे मुझसे सर्वथा भिन्न हैं ॥ २८ ॥ मोक्षका अभिलाषी पुरुषही कुछ सुखी है इसवातको आचार्यवर दिखाते हैं ।
कर्म न यथा स्वरूपं न तथा तत्कार्यकल्पनाजालम् ।
तत्रात्ममतिविहीनो मुमुक्षुरात्मा सुखी भवति ॥ २९ ॥ अर्थः--जिसप्रकार कर्म आत्माका स्वरूप नहीं हैं उसीप्रकार उसकर्मका जो सुख दुःख आदिकार्य, उनकी जो कल्पना, उनका समूहभी, आत्माका स्वरूप नहीं है इमलिये उनकौमें तथा कर्मके कार्यजो सुख दुःख आदिक हैं उनमें, जो मोक्षकी इच्छा करनेवाला भव्यजीव आत्मबुद्धिकर रहित है अर्थात् उनको अपना || नहीं मानता है वही आत्मा (भव्यजीव ) संसारमें सुखी है ।
भावार्थ:-जवतक जीव अपनेसे सर्वथा भिन्न जो कर्म तथा कर्मोंके सुख दुःख आदि कार्यहैं उनको अपना मानता है तबतक उसको रंचमात्रभी सुख नहीं होता क्योंकि कर्म तथा कर्मों के कार्योंको अपनानेके कारण उसको संसारमें भटकना पड़ता है और भटकनेसे उसको अनन्ते नरकादिदुःखोंका सामना करना पड़ता है किन्तु मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्यजीव कर्म तथा कर्मों के कार्यको अपनाते नहीं हैं अतः उनकोही सुखकी प्राप्ति होती है अर्थात् वेही सुखी होते हैं इसलिये मोक्षाभिलाषियोंको चाहिये कि वे परपदार्थों में आत्मबुद्धि न करें ॥२९॥ औरभी आचार्यवर कर्मकी भिन्नताका वर्णन करते हैं।
कर्मकृतकार्यजाते कर्मैव विधौ तथा निषेधे च ।
नाहमतिशुद्धबोधो विधूतविश्वोपधिर्नित्यम् ॥ ३०॥ अर्थः-कर्मद्वारा किये हुवे जो सुख दुःखरूपकार्य उनकार्योंके विधान तथा निषेध कर्मही है अर्थात्
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