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पवनान्दपञ्चविंशतिका । शरीर वचन और विकल्पभी कर्मसे कियेगये हैं मैं विशुद्ध हूं इसलिये मेरा कुछभी नहीं है।
भावार्थ:-जोकुछ कर्मों द्वारा कीहुई उपाधि हैं वे समस्त उपाधि मुझसे भिन्नही है मेरी कोई भी नहीं हैं क्योंकि जिनसे अत्यंत घनिष्ठ संबंध है ऐसे शरीर वचन आदिकभी जव मुझसे भिन्न हैं तो स्त्री पुत्र आदिक सर्वथा भिन्न तो मेरी आत्मासे भिन्न ही हैं ॥२७॥ कर्म तथा काँसे कियहुवे सुखदुःखादिकभी भिन्न हैं इसवातको आचार्यबर दिखाते हैं ।
कर्म परं तत्कार्य सुखमसुखं वा तदेव परमेव ।
तस्मिन् हर्षविषादौ मोही विदधाति खलु नान्यः ॥२८॥ अर्थः-कर्मभी भिन्न हैं और कर्मों के जो सुखदुःख आदिकार्य हैं वेभी भिन्न हैं और उनकर्मके मुख दुःख आदि कार्यों में निश्चयसे मोही जीवही हर्ष विषादको करता है अन्य नहीं ।
भावार्थ:-जिसमनुष्यको हिताहितका विवेक नहीं है अर्थात् जो मोही है वह मनुष्य ज्ञानावरणादिकौं कोभी अपना मानता है और कौके कार्यकोभी अपना मानता है इसलिये जिससमय सातावेदनीयकर्मके उदयसे कुछ मुख होता है उससमय हर्षमानता है तथा असातवेदनीयकर्मके उदयसे जिससमय दुःख होता है उससमय विषादको करता है अर्थात दुःख मानता है किन्तु जो मनुष्य बुद्धिमान है अर्थात् जिसमनुष्यको यहवस्तु मेरे हितको करनेवाली है और यहवस्तु मेरे अहितको करनेवाली है इसवातका ज्ञान है वह मनुष्य कर्म तथा काँके कार्यको अपना नहीं मानता और सातावेदनीयकर्मके उदयसे जिससमय कुछ सुखहोता है उससमय हर्ष नहीं मानता और जिससमय असातावेदनीय कर्मके उदयसे दुःख होता है उस समय विषाद नहीं करता क्योंकि वह समझता है कि कर्म तथा कर्मोंके जितनेभर कार्य हैं वे सब जड़हैं और मैं चेतन हूं
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३१२॥
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