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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000 पवनन्दिपञ्चविंशतिका । यदि मेरी आत्मामें स्वपरका भेद विज्ञान है तो चाहे जितना कर्म मेरी आत्माको मलिन करें मुझे किसीप्रकारका भय नहीं है ऐसा भेदज्ञानी सदा विचार करता रहता है ॥ २१ ॥ औरभी आचार्य कहते हैं। अन्योहमन्यमेतच्छरीरमपि किं पुनर्न बहिरर्थाः । व्यभिचारी यत्र सुतस्तत्र किमरयः स्वकीयाःस्युः ॥२२॥ अर्थः-मैं अन्यहूं और यदि यह शरीरभी मुझसे अन्य है तो बाह्य जो स्त्री पुत्र आदिक पदार्थ हैं वे तो | मुझसे अवश्यही भिन्न है क्योंकि यदि संसारमें अपना पुत्रही अनिष्टका करनेवाला होजावे तो वैरीभी मेरे नहीं होसक्ते अर्थात् वेतो अवश्यही मेरे अनिष्टके करनेवाले होंगे। भावार्थ:-संसारमें सबसे स्वकीय (अपना ) पुत्र समझा जाताहै यदि वहभी मुझे दुःखका देनेवाला होजावे और मेरे अनिष्टोंका करनेवाला होजावे तो वैरी तो अवश्यही अनिष्टके करनेवाले होंगे क्योंके वे पहिलेसही स्वकीय ( अपने) नहीं हैं उसीप्रकार संसारमें सबसे अधिक अपना संबंधी शरीर है यदि वहभी आत्मासे भिन्न है तो स्त्री पुत्र आदिकतो अवश्यही भिन्न हैं ऐसा समझना चाहिये ॥ २२ ॥ औरभी आचार्यवर आत्मा शरीरसे जुदा है इसवातको वताते हैं। व्याधिस्तुदति शरीरं न माममूर्त विशुद्धबोधमयम् । अमिर्दहति कुटीरं न कुटीरासक्तमाकाशम् ॥२३॥ अर्थः-यदि झोपड़ेमें अग्नि लगजावे तो वह झोंपड़ेमें लगीहुई अग्नि झोंपड़ेकोही जलाती है किन्तु उसकेमध्यमें रहेहुवे आकाशको नहीं उसीप्रकार जो शरीर में नानाप्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं वे रोग उस 000000000००००००००००००००००००००००००००4006066666 ३०९॥ For Private And Personal
SR No.020521
Book TitlePadmanandi Panchvinshatika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmanandi, Gajadharlal Jain
PublisherJain Bharati Bhavan
Publication Year1914
Total Pages527
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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