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पचनन्दिपविशतिका । भावार्थ:-यह नियम है कि जिसप्रकारका कारण होता है कार्यभी उसीप्रकारका होता है सुवर्णसे सुवर्ण मयपात्रकी तथा लोहसे लोहमयपात्रकी ही क्यों उत्पत्ति होती है उसका कारण यही है कि उन दोनोंका कारण सुवर्ण तथा लोहा है उसीप्रकार शुहात्माकी प्राप्ति में कारण शुद्धात्माका ध्यान है और अशुहात्माकी प्राप्तिमें अशुद्धात्माका ध्यान है इसलिये जो मनुष्य शुद्धात्माका ध्यान करते हैं उनको तो शहात्माकी प्राप्ति होती है और जो मनुष्य अशुद्धआत्माका ध्यान करते हैं उनको अशुद्ध आत्माकीही प्राप्ति होती है अतः जो मनुष्य शुद्धआत्माकी प्राप्ति के अभिलाषी हैं उनको शुद्ध आत्माकाही ध्यान मनन करना चाहिये ॥ १८ ॥ चारित्रकर शुद्ध यदि सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान रहैं तो जन्म नहीं होसक्ता इसवातको आचार्य कहते हैं ।
सानुष्ठानविशुद्धे दृग्बोधे जृम्भिते कुतो जन्म ।
उदिते गभस्तिमालिनि किं न विनश्यति तमो नैशम् ।। १९॥ अर्थः-जिसप्रकार सूर्यके उदयहोनेपर रात्रिका अंधकार नष्ट होजाता है उसीप्रकार सम्यक्चारित्रसे शुद्ध जिससमय सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र होते हैं उससमय जन्म कदापि नहीं होसक्ता।
भावार्थ:-जबतक सूर्यका उदय नहीं होता है तभीतक निशाका अंधकार आकाशमें व्याप्त रहता है किन्तु जिससमय सूर्यका उदय होजाता है उससमय पलभरमें रात्रिका अंधकार दूर भगजाता है उसीप्रकार जवतक आत्मामें अखंड सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्रकी प्राप्ति नहीं होती तभीतक संसार रहता है अर्थात् संसारमें भटकना पड़ता है किन्तु जिससमय निर्मल सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति होजाती है उससमय आत्माको संसारमें भटकना नहीं पड़ता ॥ १९ ॥ मनको नाशकरदेना चाहिये इसवातको आचार्य वर्णन करते हैं।
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॥३०॥