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पचनन्दिपश्चविंशतिका । भी कमलका पत्र जलसे अस्पृष्ट है अर्थात् जलके स्फर्शकर रहित है उसीप्रकार आत्मा भी कमाके स्पर्श कर रहित है अर्थात विमुक्त है ऐसा देखता है तथा आत्मा कर्मोंके बंधनकर रहित है अर्थात् एक है यहभी देखता है और आत्मा कर्मस्वरूप नहीं है कर्मोंसे भिन्न है यहभी वह देखता है और आत्मा अविशेष है अर्थात् कर्मोद्वारा कियेहुवे जो मनुष्य देव आदि नानाप्रकारके विशेष, उनकरके रहित है ऐसाभी देखता है ॥ १७ ॥ नाटक समयसारकलशाभिषेक में भी कहा है ।
भेदविज्ञानतःसिद्धा सिद्धा ये किल केचन ।
अस्यैवाभावतोबद्धा बद्धा ये किल केचन ॥१॥ अर्थः--जोकुछजीव सिडहुवे हैं वे जीव स्वपरभेदविज्ञानसे ही सिद्दहुवे है और जो कुछजीव बंधे हैं वें स्वपरभेदविज्ञानके अभावसे ही बंधे हैं इसलिये सिद्धवननेकी इच्छाकरनेवाले भव्यजीवोंको अवश्यही भदविज्ञानकी ओर दृष्टि देनी चाहिये ॥ १॥ जो शुद्धआत्माका ध्यान करता है उसको तो शुद्धआत्माकी प्राप्ति होती है और जो अशुद्धआत्माका ध्यान करता है उसको अशुद्धआत्माकी प्राप्ति होती है इसवातको आचार्य बतलाते हैं।
शुद्धाच्छुद्धमशुद्धं ध्यायन्नाप्नोत्यशुद्धमेव स्वम् ।
जनयति हेम्रो हैमं लोहाल्लौहं नरः कटकम् ॥१८॥ अर्थः-जिसप्रकार मनुष्य सुवर्णसे सुवर्णमयही कढ़ाईको वनाता है और लोहसे लोहमय कढ़ाईकोही वनाता है उसीप्रकार जो मनुष्य शुद्धात्माका ध्यान करता है उसको तो शहात्माकीही प्राप्ति होती है और जो मनुष्य अशुहआत्माका ध्यान करता है उसको अशुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है।
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