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॥२५७॥
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पचनन्दिपश्चविंशतिका । मनसोचिन्त्यं वाचामगोचरं यन्महस्तनोभिन्नम् ।
खानुभवमात्रगम्यं चिद्रूपममूर्तमव्याद्धः ॥२॥ अर्थः-जिस चैतन्यरूपीतेजका मनसे चितवन नहीं करसक्ते हैं और बासे भी वर्णन नहीं करसक्ते हैं और | जो शरीरसे सर्वथा भिन्न है और केवल स्वानुभवसे ही जानाजाता है ऐसा वह चैतन्यरूपीतेज आपलोगोंकी रक्षा करै।
वपुरादिपरित्यक्ते मजल्यानंदसागरे मनसि ।
प्रतिभाति यसदेकं जयति परं चिन्मयं ज्योतिः ॥ ३॥ अर्थः-शरीर धन धान्य आदिसे रहित होनेपर जिससमय चित्त आनन्दसागरमें डूबता है उससमय जो तेज मालूम पडता है वह एक, तथा चैतन्यस्वरूपी उत्कृष्ट ज्योति इससंसारमें जयवंत है ।
भावार्थ:-जबतक प्राणियोंकी, यह शरीर मेरा है, यह स्त्री मेरी है, तथा ये पुत्र धन धान्य आदिक मेरे हैं, इसप्रकारकी शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, आदि पदार्थों में ममता लगी रहती है तबतक किसीको भी उसउत्कृष्ट चैतन्यस्वरूपी तेजका अनुभव नहीं होसक्ता किन्तु जिससमय शरीर आदिसे ममता छुटजाती है और मन आनंद सागरमें गोता मारता है उससमय जो तेज अनुभवमें आता है वही चैतन्य स्वरूप उत्कृष्टतेज है तथा वह तेज सदा इसलोकमें जयवंत है ॥ ३ ॥ अव आचार्य सञ्चेगुरूको नमस्कार करते हैं।
स जयति गुरुगरीयान् यस्यामलवचनरश्मिभिझटिति ।
नश्यति तन्मोहतमो यदविषयो दिनकरादीनाम् ॥ ४॥ व पुस्तक में “परेप के" यह भी पाठ है उसका अर्थ यह है कि शारीर भादिके जो पर हैं उनके साग होने पर
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