________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
.......................................................
पचनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-जिनगुरुओंके निर्मलवचनरूपी किरणोंस जिसको सूर्य चन्द्र आदिकभी नाश नहीं करसक्ते ऐसा प्रवल मोहरूपी अंधकार वातकी बातमें नष्टहोजाता है ऐसे वे उत्तम गुरू सदा इसलोकमें जयवंत हैं अर्थात् ऐसे गुरुओंको मैं नमस्कार करता हूँ।
भावार्थः-यों तो संसारमें वेषधारी वहुतसे गुरू मोजूद हैं और अपनेको जगद्गुरूके नामसे पुकारनेका प्रयत्न भी करते हैं किन्तु वे वनावटी गुरू सच्चे गुरू नहीं होसक्ते क्योंकि गुरुशहका अर्थ ही यह है जो मोहान्धकारको दूर करनेवाला हो इसलिये जो अपने वचनोंसे मोहांधकारको दूर करनेवाले हैं वास्तवमें वेही गुरू हैं और उन्ही गुरुओंको मैं नमस्कार करता हूँ ॥४॥ मोक्ष दुःसाध्य है इसवातको आचार्य दिखाते हैं।
अस्तां जरादिदुःखं सुखमपि विषयोद्भवं सतां दुःखम् ।
तन्मन्यते सुखं यत्तन्मुक्तौ सा च दुःसाध्या ॥५॥ अर्थः-संसारमें जो जीवोंको जरा मरण आदिक दुःख होते हैं वे तो दुःखही हैं इसलिये वे तो दूरही रहो परन्तु विषयोंसे उत्पन्न हुवे सुखकोजो जीव सुखमानते हैं वह भी सुखनही हैं दुःखही हैं किन्तु वास्तविक सुखतो मोक्षमें ही है और वह मोक्ष अत्यंत दुःखसाध्य है।
भावार्थ:-जरा मरण आदिके दुःखको तो सर्वमनुष्य दुःखही कहते हैं इसलिये वे तो दुःख हैं ही किन्तु वहुतसे अज्ञानीजीव इन्द्रियोंसे उत्पन्नहुवे सुखको भी सुख कहते हैं सो उसको सुख कहना ठीक नहीं वह सुख नहीं दुःखही है किन्तु यदि वास्तविक सुख है तो मोक्षमें ही है और वह मोक्ष अत्यंत दुःखसे साध्य है ॥५॥ विषयादिक सुखतो सुलभ है किन्तु मोक्षकेलिये शुद्धात्माकी प्राप्ति सुलभ नहीं है इसवातको आचार्य दिखाते हैं।
10000000000000000000000000000०००००००००००००००००००००००००००
For Private And Personal