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॥३०॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । नाशकरने वालीहै अर्थात मोक्ष की प्राप्तिमें कारण है इसलिये स्वयं मोक्षको जानेकी इच्छाकरनेवाले श्रीआचार्य कहतेहैं कि मैं अबइसग्रंथमें शुद्धनतका कुछ वर्णनकरताहूं ॥ ८ ॥ प्रथमही आचार्य इसबातको दिखातेहैं कि जो पुरुष निश्चयनयके अनुगामी हैं वे मोक्षको जातेहैं ।
व्यवहारोऽभूतार्थों भूतार्थों देशितस्तु शुद्धनयः ।
शुद्धनय आश्रिता ये प्राप्नुवन्ति यतयः पदं परमम् ॥९॥ अर्थः--व्यवहारनयतो असत्यार्थभूत कहागया है और शुद्धनय सत्यार्थभूत कहागया है और जो मुनि शुद्धनयको आश्रितहैं वे मुनि मोक्षपदको प्राप्तहोते हैं।
भावार्थ:--अखंडपदार्थको खंडरीति से जानना यह जो व्यबहारनयका विषय है वह सत्यार्थभूत नहीं है इसलिये व्यवहारनयभी सत्यार्थभूत नहीं है अतः जो जीव इसनयका आश्रय करते हैं उनको संसारमें ही रुलना पड़ताहै मोक्षको नहीं जाते किन्तु जो जीव शुद्धनिश्चयनयका आश्रय करते हैं उनको मोक्षपदकी प्राप्तिहोती है क्योंकि जोपदार्थ जैसाहै वह शुद्धनिश्चयनयसे उसीरीतिसे जानाजाताहै इसलिये जोजवि मोक्षके अभिलाषी हैं उनको शुद्धनिश्चयनयकाही आश्रय करनाचाहिते और यदि संसारमें भटकना हो तो उनको संसारके प्रधानकारण व्यवहारनयका अवलम्बन करनाचाहिये ॥ ९॥ व्यवहारनयसे तो तत्वका स्वरूप कुछ कहसकते हैं किन्तु निश्चयनयसे तत्व अवाच्यहै इसबातको आचार्य वतलाते हैं।
तत्वं वागतिवर्ति व्यवहृतिमासाद्य जायते वाच्यम् ।
गुणपर्ययादिविवृतेः प्रसरति तच्चापि शतशाखम् ॥१०॥ अर्थः-निश्चयनयसे तो तत्व वाणीके अगोचरहै अर्थात् वचनसे उसकेस्वरूपका वर्णन नहीं करसक्ते
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