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पचनन्दिपञ्चविंशतिका। जब उसको जानसक्ते हैं तब उसका वर्णन भी करसक्ते हैं तथा वर्णन करनेसे उसका अनुभव भी होसक्ता है किन्तु आत्मा तो अत्यंत गहन है इसलिये प्रथम तो उसको जानही नहीं सक्तं यदि किसीरीतिसे जानभी लेवे तो उसका वर्णन नहीं करसक्ते यदि कुछ उसकावर्णन भी करसके तो उसका अनुभव नहीं करसक्ते इसलिये आत्माका बोध वर्णन अनुभव सर्वही कठिन है ॥ ७ ॥ अब आचार्य इसबातको कहते हैं दोनों नयों में व्यवहारनय तो अज्ञानीजनोंको समझानेकेलिये है
और शुद्धनय कौके नाशकेलिये है इसलिये शुद्धनयका कुछ वर्णन करता हूं।
व्यवहृतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनयः।
स्वाथे मुमुक्षुरहमिति वक्ष्ये तदाश्रित किंचित् ॥८॥ अर्थः-जीव अज्ञानी है उनके समझानेकेलिये तो व्यवहारनय है और शुद्धनय कमौके नाशके लेये है इसलिये आचार्य कहते हैं कि मोक्षका इच्छाकरनेवाला मैं अपनेलिये शुद्धनयका आश्रयकर वुछ कहता हूं अर्थात् शुडनयका वर्णन करता हूं।
भावार्थ:-यदि निश्चयनयसे अनुभव कियाजाय तो आत्मा एक अखंडपदार्थ है उसमें किसीप्रकारका भेद नहीं लेकिन जिनपुरुषोंके ज्ञानपर आवरण पड़ाहुवा है अर्थात् जो अज्ञानी हैं वे सहसा आत्माकेस्वरूपको नहीं जानसक्ते इसलिये सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान आदि आत्माके गुणोंको जुदा कर उनको आत्माका स्वरूप समझाया जाताहै और अखंडवस्तुको खडरूपसे जानना यहविषय व्यवहार नयकाहै इसलिय व्यवहारनयतो मूखौंको समझानेकेलिये है किन्तु उसके आशयसे काँका नाश नहीं होसकता और शुद्धनयसे जो पदार्थ जैसाहै वह वैसाही समझाजाताहै इसलिये पदार्थके वास्तविकस्वरूपके समझाने के कारण शुद्धनय कौंको
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