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पचनन्दिपश्चविंशतिका । जीवोंके चित्तको बड़ा भारी संतोष होता है ऐसा वह सम्यग्ज्ञानरूपी चन्द्रमाका उदय चिरकालतक इससंसारमें जयवंत रहता है॥ ५० ॥
इसप्रकार श्रीपद्मनन्दिआचार्यहाग रचित इसपद्मनन्दिपञ्चविंशतिकामें
सद्बोधचन्द्रोदयनामक अधिकार समाप्त हुआ ।
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निश्चयपश्चाशत् ।
आर्या । दुर्लक्ष्यं जगति परं ज्योतिर्वाचां गणः कवीन्द्राणाम् ।
जलमिव वजे यस्मिन्नलब्धमध्यो बहिर्जुठति ॥१॥ अर्थ:-जिसप्रकार जल हीरानामकरत्नके अंदर प्रवेश नहीं करता है और बाहिरीभागमेंही रहा आता है उसीप्रकार जिसचैतन्यस्वरूपज्यातिमें बड़े २ कवियोंकी बाणी भी प्रवेश नहीं करसक्ती बाहिरीभागमें ही रह जाती है ऐसा वह चैतन्यखरूपीतेज संसारमें दुर्लक्ष्य है अर्थात् जिसको बड़ी कठिनाईसे भी नहीं देख सक्ते
भावार्थ:-जो बस्तु दृष्टिके गोचरहोवै अर्थात् जिसको देख सकैं उसको तो कविलोग वचनसे कहसक्ते हैं उसका वर्णन करसक्त हैं किन्तु चैतन्यस्वरूपतज संसारमें इतना दुर्लक्ष्य है कि जिसप्रकार जल हीराके मध्यभागमें प्रवेश नहीं करसक्ता है बाहिरीभागमें ही रह जाता है उसीप्रकार कवियोंकी वाणी भी उसके अंतरंगमें प्रवेशकर उसकावर्णन नहीं करसक्ती किन्तु बाहिरमें ही लडखडाती रहजाती हैं॥१॥
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